टैरिफ से व्यापार को झटका। फोटो- (The Washington Post)
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारतीय सामानों पर 50 प्रतिशत टैरिफ लगाया है। इसका अब भारत में बड़ा असर दिखने लगा है। इसकी वजह से भारत में गारमेंट्स उद्योग ठप हो गए हैं।
तिरुप्पुर में कई कपड़ा कारखाने बंद हो गए हैं। मंदी का असर बड़े-बड़े कारखानों और छोटी-छोटी वर्कशॉपों पर पड़ा है, जिनमें 6,00,000 से ज्यादा लोग काम करते हैं। हजारों कपड़ा काटने वाले, धागा काटने वाले और सिलाई मशीन चलाने वाले एक झटके में बेरोजगार हो गए हैं।
तिरुप्पुर में सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन्स के महासचिव जी. संपत ने द वाशिंगटन पोस्ट को बताया कि कपड़ा उत्पादन में 25 प्रतिशत की गिरावट आई है। तिरुप्पुर एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन के अनुसार, पिछले साल इस शहर का कपड़ा निर्यात 3.7 अरब डॉलर का था।
उन्होंने आगे बताया कि अब तक यहां (तिरुप्पुर) बनने वाले एक-तिहाई कपड़े आमतौर पर वॉलमार्ट, टारगेट और सियर्स सहित कई अमेरिकी कंपनियों को भेजे जाते थे।
उधर, एक दर्जन से ज्यादा फैक्ट्री मजदूरों, ठेकेदारों और बिजनेस जगत के लोगों के साथ बातचीत से पता चला कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के व्यापार युद्ध ने किस तेजी से तिरुप्पुर में लोगों के जीवन और आजीविका को तहस-नहस कर दिया है।
तिरुप्पुर एक ऐसा शहर है, जहां कई मजदूरों के पास न तो कोई लिखित अनुबंध है और न ही नौकरी की सुरक्षा। ग्रामीण इलाकों से आए प्रवासी मजदूरों को अब अपने घर भेज दिया गया है।
जो लोग अभी भी कपड़ा फैक्ट्री में काम कर रहे हैं, उन्होंने बताया गया है कि उनके काम के घंटे और मजदूरी कम कर दी गई है। जिन निर्यातकों के ऑर्डर रुके हुए हैं या रद्द हो गए हैं, वे मौजूदा स्टॉक को बाहर भेजने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि नया स्टॉक बिक नहीं पाएगा।
कुछ लोगों ने बताया कि अमेरिकी खरीदार टैरिफ की लागत की भरपाई के लिए 20 प्रतिशत तक की छूट की मांग करने लगे हैं। 44 वर्षीय मनोहर साहनी ने पिछले दो साल तिरुप्पुर में नए सिले हुए कपड़ों से ढीले धागे काटने में बिताए हैं।
वे अपने परिवार के साथ बिहार से तिरुप्पुर आए थे, उन्हें वहां स्थायी नौकरी का वादा किया गया था। उनकी पत्नी भी एक फैक्ट्री में काम करती थीं। दोनों मिलकर लगभग 39,577 रुपये प्रति माह कमाते थे, जो एक मामूली जीविका के लिए पर्याप्त था।
मगर अब उत्पादन धीमा होने की वजह से उनका काम बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। अब उनकी आय घटकर सिर्फ़ 21,987 रुपये प्रति माह रह गई है, जो खाने और किराए के लिए भी मुश्किल से पर्याप्त है।
साहनी ने कहा कि मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या करना चाहिए? क्या मुझे अपने पास बचे हुए थोड़े से पैसे से अपने परिवार का पेट भरना चाहिए या अपना कर्ज चुकाना चाहिए?
पिछले महीने कमाई से तंग आकर साहनी अपनी पत्नी और दो बच्चों को छोड़कर कर्नाटक चले गए, जहां उन्हें 351 रुपये प्रतिदिन की दर पर निर्माण कार्य में नौकरी मिल गई।
साहनी ने यह भी कहा कि उन्हें वैश्विक व्यापार नीति के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन उन्हें लगता है कि उनकी सरकार ने उन्हें छोड़ दिया है। किसी को परवाह नहीं है कि उनके साथ क्या हो रहा है।
एचएंडएम जैसे ब्रांडों के लिए टी-शर्ट, पैंट और बच्चों के कपड़े बनाने वाली गीना गारमेंट्स के मैनेजिंग पार्टनर मोहन शंकर ने कहा कि हमारे लिए अभी सबसे जरूरी बात मुनाफे के मार्जिन पर ध्यान देना नहीं, बल्कि पैसों का प्रबंधन करना है। यह हमारे लिए अस्तित्व का दौर है।
अमेरिकी खरीदारों द्वारा ऑर्डर कम करने या देरी करने पर शंकर ने कहा कि उनकी योजना अमेरिकी बाजार के लिए उत्पादन लगभग 70 प्रतिशत कम करने की है। उन्होंने कहा कि ऊपरी लागत कम करने और अंततः संख्या घटाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
28 अगस्त को 50 प्रतिशत टैरिफ लागू होने के एक दिन बाद, भारत सरकार ने कपास के आयात शुल्क में छूट बढ़ा दी, जिसे कपड़ा निर्माताओं को कुछ राहत देने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन तिरुप्पुर के व्यवसाय मालिकों का कहना है कि उन्हें और अधिक समर्थन की आवश्यकता है और उन्हें इसकी तत्काल आवश्यकता है।
एक व्यापारी ने कहा कि भारत में ऐसी नीति होनी चाहिए जिसके तहत लोगों को आपातकालीन ऋण दिया जा सके। उन्होंने मौजूदा मंदी की तुलना महामारी के दौर से की। फिलहाल, उनकी मांगों पर भारत के वाणिज्य मंत्रालय ने टिप्पणी के अनुरोध का जवाब नहीं दिया है।
इसके अलावा, कपड़ा उद्योग से वर्कर 32 वर्षीय सनोज कुमार ने कहा कि बढ़ी हुई ड्यूटी लागू होने से पहले उन्हें अपने कस्टमर्स के लिए अंतिम ऑर्डर पूरे करने और भेजने में बड़ी भागदौड़ करनी पड़ती थी।
उन्होंने कहा कि हमें समय पर सब कुछ पूरा करने के लिए दिन-रात काम करना पड़ता था। ब्रांडों के एजेंट भी निगरानी और दबाव बनाने के लिए यहां आते थे।
उन्होंने बताया कि कुछ दिनों बाद, उन्हें और उनके सहयोगियों को काम पर न आने के लिए कह दिया गया। अब कोई और ऑर्डर पूरा करने के लिए नहीं बचा था।
सनोज कुमार भी बिहार के ही रहने वाले हैं, जो किशोरावस्था में ही अपने चाचाओं के साथ कपड़ा कारखानों में काम करने तिरुपुर चले गए थे।
उन्होंने पहले चेकर का काम किया, तैयार वस्तुओं से बिखरे धागे हटाए और एक ठेकेदार की भूमिका भी निभाई, जो फैक्ट्रियों में मजदूर सप्लाई करते है।
उन्होंने बताया कि हाल के महीनों में लगभग सभी लोग घर लौट आए हैं। कुमार का कहना है कि उनके पास अब कोई पैसा नहीं बचा है। उन्होंने कहा कि मजदूर काम की तलाश में एक कंपनी से दूसरी कंपनी में भटक रहे हैं, लेकिन उन्हें कोई काम नहीं मिल रहा।
सनोज साथ में एक मोबाइल फोन रिपेयर की दुकान भी चलाते हैं। इससे उनका गुजारा चलता था, लेकिन कपड़ा कारोबार ठप होने के कारण अब ग्राहक कम हो गए हैं। उन्होंने कहा कि अगर निर्यात कंपनियों में काम होगा, तभी दूसरे व्यवसाय भी फलेंगे-फूलेंगे।
उधर, 35 वर्षीय फैक्ट्री मजदूर मनोज कुमार की मजदूरी आधी कर दी गई है। उन्होंने कहा कि यह कहना कि हम झुकेंगे नहीं, सुनने में तो अच्छा लगता है। लेकिन हम अपना पेट कैसे भरेंगे?
(वॉशिंग्टन पोस्ट का यह आलेख पत्रिका.कॉम पर दोनों समूहों के बीच विशेष अनुबंध के तहत पोस्ट किया गया है।)
Updated on:
19 Oct 2025 02:13 pm
Published on:
19 Oct 2025 02:10 pm
बड़ी खबरें
View AllPatrika Special News
ट्रेंडिंग