ये घोषणाएं केवल सत्ता की लालसा और राजनीतिक एजेंडे का प्रतिबिंब होती हैं। चुनाव खत्म होते ही लोकलुभावन वादे अनर्गल बयानबाजी और बहानेबाजी में बदल जाते हैं और जनता को हर बार ठगा जाता है।
चुनाव आयोग को लोकलुभावन और थोथी घोषणाओं पर सख्ती बरतनी चाहिए। घोषणाओं का स्पष्ट विजन तय हो और उन्हें बॉन्ड पत्र के रूप में लिखित रूप में दर्ज किया जाए। यदि घोषणाएं पूरी न हों, तो सजा और जुर्माने का प्रावधान हो तथा चुनाव आयोग और न्यायालय स्वत: संज्ञान लें। आमजन के लिए राजनीतिक दलों से यह कार्य करवाना आसान नहीं होगा।
राजनीतिक दलों की चुनाव से पूर्व की जाने वाली अधिकतर घोषणाएं लालच से भरी मुफ्त की रेवड़ियां होती हैं, जो लोगों में अकर्मण्यता को बढ़ावा देती हैं और देश के सर्वांगीण विकास में बाधा डालती हैं। ये घोषणाएं केवल सत्ता की लालसा और राजनीतिक एजेंडे का प्रतिबिंब होती हैं। चुनाव खत्म होते ही लोकलुभावन वादे अनर्गल बयानबाजी और बहानेबाजी में बदल जाते हैं और जनता को हर बार ठगा जाता है।
राजनीतिक दलों की चुनावी घोषणाएं केवल घोषणाएं ही रह जाती हैं। इन्हें धरातल पर उतारने के लिए कानून बनाकर लागू करना चाहिए। यदि किसी दल का विजयी उम्मीदवार अपनी घोषणाओं को लागू नहीं करता, तो उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए।
चुनावी रैलियों और घोषणाओं में मुफ्त की रेवड़ियां बांटी जा रही हैं, जिनका सीधा प्रभाव करदाता की जेब पर पड़ता है। इसका सबसे अधिक नुकसान मध्यम वर्ग को होता है, जिससे करदाता स्वयं को ठगा हुआ महसूस करता है और एक विशेष वर्ग विदेशों की ओर पलायन कर जाता है।
नेता और राजनीतिक दल चुनाव आते ही अपनी जुबान में मिठास घोल लेते हैं, लेकिन जनता अब जागरूक हो चुकी है। जनता जानती है कि "थोथा चना, बाजे घना" की नीति इन नेताओं की प्रमुख राजनीति होती है।
हम सोचते हैं कि राजनीतिक दल किसी भी जाति या वर्ग का हो, लेकिन वह राज्य और जिले का विकास करे। चुनावी घोषणाओं को हम सकारात्मक सोच के साथ स्वीकार करते हैं, क्योंकि हम ही अपने नेता चुनते हैं। हमें चाहिए कि वे शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई नियंत्रण और आधारभूत विकास पर ध्यान दें। जब भी कोई सरकार बजट लाए, तो वह विकासपरक हो।
राजनीतिक दलों की चुनावी घोषणाएं केवल मतदाताओं को लुभाने का जरिया बन गई हैं। रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर जोर देकर वादे किए जाते हैं, लेकिन उन्हें पूरा करने की कोई जवाबदेही नहीं होती। सरकार को ऐसा कानून बनाना चाहिए, जिससे हर वादा पूरा हो और योजनाओं का लाभ जनता तक सुचारू रूप से पहुंचे।
चुनाव पूर्व किए गए वादे अक्सर पूरे नहीं होते। घोषणापत्र केवल जनता से वोट बटोरने का एक जरिया बन गया है। चुनाव जीतने के बाद इन घोषणाओं का कोई जिक्र नहीं होता। चुनाव आयोग को आचार संहिता लागू होने के बाद घोषणापत्र पर पाबंदी लगानी चाहिए, ताकि चुनाव में पारदर्शिता बनी रहे और जनता किसी राजनीतिक दल के बहकावे में न आए।
राजनीतिक दल मुफ्त राशन, बिजली-पानी, सफर, कर्ज माफी और नकद धन जैसी हवा-हवाई घोषणाएं करते हैं। वे जानते हैं कि जनता के लिए शिक्षा, उद्योग, कृषि सुधार, भ्रष्टाचार उन्मूलन, अच्छी सड़कों और स्वास्थ्य सेवाओं से ज्यादा मुफ्त योजनाएं महत्वपूर्ण लगती हैं। जनता को जागरूक होना चाहिए कि ये योजनाएं सिर्फ उनकी भावनाओं से ही नहीं, बल्कि देश के विकास से भी खिलवाड़ कर रही हैं।
राजनीतिक दल चुनाव के दौरान बड़े-बड़े वादे करते हैं, लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद कितनी योजनाएं धरातल पर उतरती हैं, यह सब जानते हैं। चुनाव के समय जनता से वोट मांगने वाले नेता, चुनाव जीतने के बाद आमजन से मिलते भी नहीं। जनता को जागरूक करना जरूरी है कि जो वादा पूरा करे, वही सही नेता है।
Updated on:
03 Feb 2025 07:26 am
Published on:
02 Feb 2025 01:09 pm
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