सोना खरीदने व उसे भविष्य का निवेश मानते हुए सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति भारतीयों में नई नहीं है। आदिकाल से स्वर्ण आभूषण प्रतिष्ठा व समृद्धि का परिचायक रहे हैंं। लेकिन पिछले छह साल में ही सोने के दाम 200 फीसदी बढ़ गए हैं। प्रति दस ग्राम एक लाख रुपए के पार जा पहुंचा सोना आम आदमी की पहुंच से बाहर हो चला है। कुलिश जी ने पच्चीस वर्ष पहले अपने आलेख में स्वर्ण नीति को अव्यावहारिक बताते हुए देश में सोने के जरिए आवास समस्या का हल सुझाया था। आलेख के अंश:
देश में इस समय सबसे ज्यादा लाभकारी धंधा जमीनों का है। लोगों के पास रहने को घर नहीं है। बढ़ती आबादी के साथ-साथ घरों की कमी भी बढ़ती जा रही है। आवास की इस कमी को पूरा करने में सरकार महती भूमिका निभा सकती है। जमीनों पर आधिपत्य सरकार का है। लाखों-करोड़ों एकड़ जमीनों को रिहायशी मकानों के लिए वह योजनाबद्ध तरीके से विकसित कर सकती है और सोने के बदले लागत मूल्य पर या रियायती दरों पर जमीन बेच सकती हैं। जमीन या मकान के नाम पर हमारी गृहणियां अपनी चूडिय़ां और बुन्दे भी बेच सकती हैं। देशवासी सहज ही अपना सोना देकर जमीनें खरीदना चाहेंगे। यह क्रम निरन्तर चलता रहे। इससे एक ओर जमीनों का कारोबार चन्द व्यवसायियों के हाथों में न रहकर सरकार के हाथ में आ जाएगा और सोने का संचय सरकार के हाथ में होगा जो विदेशी कर्जा चुकाने के काम में आएगा। इसके साथ ही काले धन का उपयोग भी विदेशी कर्ज चुकाने में सहायक होगा। स्वर्ण का संचय अपने हाथ में लेकर सरकार विदेशी ऋण भार को हल्का कर सकती है। एक बार प्रयोग तो करके देखें। विचार तो करें?
प्रश्न यह हैं कि सोने को डालर के समकक्ष क्यों नहीं माना जाता? मैं अगर एक जहाज भर कर सोना लाना चाहूं तो उस पर पाबन्दी क्यों? क्या हमने भुगतान के लिए रिजर्व बैंक से सोना निकालकर इंग्लैण्ड में गिरवी नहीं रखा? एक नागरिक जब सोना लाना चाहता है तो वह देश का हित साधन करेगा या अहित करेगा? अच्छा तो यह हो कि सोने के आयात और देश में खरीद-बेच की पूरी तरह छूट दे दी जाए। घोषणा कर दी जाए कि जो जितना भी सोना आयात करके लाए उस पर कोई कर नहीं लिया जाएगा। देश में जो कोई जितना भी सोना खरीदना चाहे, खरीद ले और उससे धन का स्रोत भी न पूछा जाए। अर्थशास्त्री या राजनेता जो भी तर्क दें, परन्तु इसमें तो विवाद नहीं होगा कि देश में स्वर्ण भण्डार बढ़ेगा। इस स्वर्ण-भण्डार का उपयोग उचित रीति से सरकार अपने लिए कर सकती है और देश के हित में कर सकती है।
अव्यावहारिक स्वर्ण नीति
हमारी अर्थव्यवस्था का एक उपेक्षित पहलू सोना है। एक ओर तो देशवासियों का, विशेषत: गृहणियों का स्वर्ण के प्रति प्रगाढ़ मोह, दूसरी ओर विदेशी विनिमय के लिए स्वर्ण की आवश्यकता और तीसरी ओर सरकार की अव्यावहारिक स्वर्ण नीति। सरकार की स्वर्ण नीति इतनी निरर्थक है कि उसमें सुधार से जो लाभ लेना चाहिए वह भी नहीं हो रहा। इसके विपरीत तस्करी का कारोबार चालू रहता है। वर्ष 1962-63 में एक समय तो ऐसा आया जब देश में पांच तोला से ज्यादा सोना रखने वालों को सजा देना तय कर दिया गया। धीरे-धीरे स्वर्ण नियंत्रण में ढिलाई की गई तो वह इस रूप में सामने आई कि कोई भी भारतीय जो विदेश में रहता है, निश्चित मात्रा तक सोना अपने साथ तो ला सकता है परन्तु उसे प्रति दस ग्राम सोने पर तटकर देना होगा। प्रश्न उठता है कि सोने की खरीद -बेच पर यह पाबंदी ही क्यों?
(20 सितम्बर 1995 को ‘अर्थव्यवस्था के उपेक्षित पहलू ’ आलेख के अंश )
…अमरीका में जेवरों की प्रथा
अमरीका का अर्थतंत्र अर्थात दैनिक जीवन देखा। इस अर्थतंत्र की सफलता का एक ही प्रमाण काफी है कि अमरीका का हर औसत परिवार जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं और आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न है। मोटर बहुत जरूरी चीज बन गई है। कपड़ा हैसियत की निशानी नहीं है। जेवर पहनने की (हमारे देश के मापदण्ड से) यहां प्रथा ही नहीं है। फिर भी मैंने देखा कि मध्यवर्ग की हर स्त्री के हाथ में हीरे की एक अंगूठी जरूर होगी। धनवान परिवारों की महिलाएं पार्टियों में कान, गले और हाथों में भी जड़ाऊ जेवर पहनती हैं।
(कुलिश जी की पुस्तक ‘अमरीका एक विहंगम दृष्टि’ से )
Published on:
21 Aug 2025 08:20 pm
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