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किताबों का जादू: डिजिटल दौर में भविष्य उज्ज्वल व आशाजनक

लोकेश त्रिपाठी, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार

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आज के डिजिटल युग में, जहां हर पल हमारी अंगुलियां स्मार्टफोन की स्क्रीन पर थिरकती रहती हैं, यह सोचना बहुत आम हो गया था कि किताबों का जमाना अब लद गया है। सोशल मीडिया, वीडियो स्ट्रीमिंग और अनगिनत ऐप्स के शोर में यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि कोई कागज की शांत दुनिया में लौटना चाहेगा। कई विशेषज्ञों ने तो यह भविष्यवाणी भी कर दी थी कि प्रिंट किताबें जल्द ही संग्रहालय की वस्तु बन जाएंगी। लेकिन तमाम अनुमानों और भविष्यवाणियों को धता बताते हुए एक हैरान करने वाली सच्चाई हमारे सामने उभरकर आई है।

यह सच्चाई है कि भारत में किताबों की बिक्री, विशेषकर प्रिंट किताबों की, घट नहीं रही बल्कि लगातार बढ़ रही है। यह महज एक व्यावसायिक आंकड़ा नहीं है, बल्कि एक गहरी सांस्कृतिक लहर का संकेत है। यह लहर एक नई कहानी कह रही है, जिसमें किताबें आज भी हमारे जीवन, हमारे ज्ञान और हमारे सुकून का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं। यह केवल कुछ पुराने शौकीनों की सनक नहीं, बल्कि एक ठोस हकीकत है जो बताती है कि किताबों का जादू आज भी पहले की तरह ही बरकरार है।

इसका सबसे जीवंत और प्रत्यक्ष प्रमाण हमें देश में लगने वाले विशाल पुस्तक मेलों में देखने को मिलता है। ये मेले अब केवल किताबें खरीदने और बेचने की जगह नहीं रहे, बल्कि ये शब्दों के उत्सव, ज्ञान के मेले और संस्कृति के महाकुंभ बन गए हैं। कोलकाता का अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेला इसका एक शानदार उदाहरण है। हाल के वर्षों में इस मेले में लाखों की संख्या में लोग आए हैं, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। इसी तरह, दिल्ली का राष्ट्रीय पुस्तक मेला भी हर साल लाखों पाठकों को अपनी ओर खींचता है। नेशनल बुक ट्रस्ट की तरफ से लखनऊ में आयोजित गोमती पुस्तक महोत्सव में पिछले साल की तुलना में इस साल किताबों की बिक्री में 30 प्रतिशत से अधिक की जबरदस्त वृद्धि दर्ज की गई। इन मेलों की अभूतपूर्व सफलता यह कहती है कि पढ़ने की संस्कृति खत्म नहीं हुई, बल्कि और भी ज्यादा मजबूत होकर लौटी है।

यह बढ़ती बिक्री केवल व्यावसायिक घटना नहीं है, बल्कि इसके पीछे पढ़ने की संस्कृति को बढ़ावा देने वाले वैश्विक और स्थानीय प्रयासों की एक मजबूत नींव है। पूरी दुनिया में पढ़ने की आदत को फिर से जीवित करने और प्रोत्साहित करने के लिए कई अद्भुत पहल चल रही हैं। भारत के कई शहरों, जैसे मुंबई, पुणे और बेंगलूरु में, 'बुक्सीज़' जैसे अनोखे सामुदायिक कार्यक्रम बेहद लोकप्रिय हो रहे हैं। इन कार्यक्रमों में हर उम्र के लोग सार्वजनिक पार्कों या अन्य शांत स्थानों पर एक साथ बैठकर घंटों तक चुपचाप अपनी-अपनी किताबें पढ़ते हैं। यह पहल पढ़ने को एक निजी गतिविधि से निकालकर एक सुंदर सामाजिक और आनंददायक अनुभव में बदल देती है।

इन वैश्विक प्रयासों के साथ-साथ, भारत में भी सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर स्कूलों में पुस्तकालयों को मजबूत किया जा रहा है और बच्चों में छोटी उम्र से ही पढ़ने की आदत डालने पर विशेष जोर दिया जा रहा है। ये सभी पहलें मिलकर एक ऐसा वातावरण बना रही हैं जहां किताबें पढ़ना फिर से एक अच्छी और सम्मानजनक आदत मानी जा रही है।

भारत में किताबों का भविष्य बहुत उज्ज्वल और आशाजनक है। एक तरफ जहां बाजार के सकारात्मक आंकड़े और पुस्तक मेलों में उमड़ती भारी भीड़ इसकी आर्थिक मजबूती का ठोस संकेत दे रही है, वहीं वैश्विक और भारतीय स्तर पर चल रही सांस्कृतिक पहलें पढ़ने की आदत की जड़ों को और गहरा कर रही हैं। यह भी समझना जरूरी है कि डिजिटल माध्यमों जैसे ई-बुक्स और ऑडियोबुक्स ने किताबों की दुनिया को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया है, बल्कि उन्होंने इसकी पहुंच को और भी ज्यादा व्यापक बना दिया है।

आज एक पाठक अपनी सुविधा के अनुसार कभी भी, कहीं भी पढ़ और सुन सकता है। असल में, डिजिटल और प्रिंट एक-दूसरे के दुश्मन नहीं, बल्कि एक ही लक्ष्य के साथी बनकर पढ़ने की संस्कृति को मिलकर समृद्ध कर रहे हैं। चाहे वह कागज की पारंपरिक किताब हो या मोबाइल पर सुनी जाने वाली एक ऑडियोबुक — कहानी और ज्ञान का सफर आज हर रूप में पूरी रफ्तार से जारी है।