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पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख: नहीं चाहिए ऐसा जयपुर

कौन नहीं चाहता कि जयपुर शहर का सुव्यवस्थित विकास हो। सुंदरता, आधुनिक सुविधाओं और सुरम्य वातावरण के मामले में शहर की गिनती विश्व के अग्रणी शहरों में हो।

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फोटो: पत्रिका

माननीय मुख्यमंत्री जी

कौन नहीं चाहता कि जयपुर शहर का सुव्यवस्थित विकास हो। सुंदरता, आधुनिक सुविधाओं और सुरम्य वातावरण के मामले में शहर की गिनती विश्व के अग्रणी शहरों में हो। यहां रहने वालों को जयपुर का निवासी होने पर गर्व हो। पर अफसोस की बात है कि लुटेरे भूमाफिया, भ्रष्ट अफसरों और लालची जन-प्रतिनिधियों की तिकड़ी निरंतर जयपुर शहर को अव्यवस्थित और प्रदूषित कंक्रीट के महाजंगल में बदलने पर तुली हुई है। यह तिकड़ी अपनी कुत्सित योजना को ‘सुनहरे विकास’ के मुलम्मे में लपेटकर प्रस्तुत करती है। इससे भी ज्यादा पीड़ादायक स्थिति है कि हमारी सरकारें इन षड़यंत्रों को हरी झंडी दिखा देती हैं। 1982 में मास्टर प्लान बनने के बाद कई बार गांवों को जोड़ा गया। मई 2011 में कांग्रेस सरकार के समय ऐसे ही 247 गांव जोड़ कर शहरी सीमा बढ़ा दी गई थी।

मुख्यमंत्री होने के नाते आपको भली-भांति पता होगा कि ऐसी ही एक योजना तीन दिन पहले फिर प्रस्तुत कर दी गई है। जयपुर विकास प्राधिकरण का दायरा दोगुना कर दिया गया है। 693 नए गांव शहर की सीमा में शामिल कर लिए गए हैं। अब जयपुर शहर की सीमा करीब सात हजार वर्ग किलोमीटर हो गई है। शहरी सीमा के मामले में अब जयपुर मुंबई (6328 वर्ग किमी), पुणे (7256 वर्ग किमी) और हैदराबाद (7257 वर्ग किमी) जैसे शीर्ष महानगरों की पंक्ति में आ गया है। समझ में नहीं आता इस ‘उपलब्धि’ पर हम गर्व करें या अफसोस! क्या आर्थिक गतिविधियों के मामले में जयपुर इन महानगरों के आसपास भी है। या फिर हम केवल नक्शे में सीमा बढ़ाकर अपने अधिकार बढ़ाकर ही खुश हैं। कहने को यह सीमा विस्तार विकास के नाम पर किया जा रहा है, पर हकीकत कुछ और ही कहानी कहती है, जो अफसरों ने आप से छुपा ले होगी। अब जयपुर विकास प्राधिकरण को इन सैकड़ोंगांवों में कहीं भी योजनाओं के नाम पर जमीनें अधिग्रहित करने का अधिकार मिल जाएगा। शहर का इतिहास गवाह है कि इन तथाकथित योजनाओं के नाम पर भ्रष्ट तिकड़ी 'सोना' निगलती है। किसानों को मुआवजे की 'गोली' थमा कर जमीनें हथिया ली जाती हैं। न ग्रामीण संस्कृति बचती है, न खेती-बाड़ी और न पशुपालन। या तो किसानों से जमीनें कोड़ियों के दाम खरीद कर सोने के भाव बेच दे जाती है या अधिग्रहण के नाम पर उन्हें बेदखल कर कथित विकास योजनाएं बना दी जाती हैं। योजनाओं की जमीनें भी धीरे-धीरे मिल बांट कर हजम कर ली जाती हैं। जयपुर निवासियों को याद होगा कि पिछले सरकारों ने किस तरह सीकर रोड पर सरकारी ट्रोमा अस्पताल और मानसरोवर में मेट्रो मास बना कर चांदी की थाली में निजी हाथों को परोस दीं।

पिछली सरकारें भ्रष्ट तिकड़ी के मायाजाल में फंसती आई हैं। आप ग्रामीण पृष्ठभूमि से उठे जमीन से जुड़े नेता हैं, उम्मीद है, इस योजना पर आगे बढ़ने से पहले आप ठहर कर पुनर्विचार करेंगे। पहले भी सरकारें इसी तरह जयपुर विकास प्राधिकरण का दायरा बढ़ाती रही हैं। एक बार अधिकार मिलने के बाद अफसर कभी ‘साइंस सिटी’, कभी ‘स्पोर्ट्स सिटी’ और कभी ‘नया जयपुर’ के नाम पर लूट-खसोट की नई-नई योजनाएं लाते हैं। योजनाएं तो पूरी नहीं हो पाती, अफसरों के नए-नए फॉर्म हाउस बन जाते हैं। बिना सोचे-समझे, अध्ययन कराए, विशेषज्ञों की राय लिए इस तरह के मनमाने फैसले करना सरकारों और अफसरशाही की नीयत पर सवाल खड़े करते हैं। विशेषकर अंग्रेजी मानसिकता वाली कार्यपालिका न तो न्यायपालिका को कुछ समझती है न विधायिका को। जलग्रहण क्षेत्रों से अतिक्रमण हटाने, परकोटे में अवैध इमारतें बनवाने, यातायात व्यवस्था सुधारने, सड़कों के गड्ढे भरने, अस्पतालों की व्यवस्था सही करने जैसे पचासों मामलों में न्यायपालिका के फैसलों अफसर कूड़ेदान में डाल चुके हैं। कार्रवाई तो दूर नोटिस तक तामील नहीं होते।

न्यायपालिका क्या, हमारी कार्यपालिका तो विधायिका तक के आदेशों की परवाह नहीं करती। यानी उसकी नीयत कहीं न कहीं गड़बड़ है। वह वही बात सुनेगी, जिसमें उसका हित है। पर सरकार भी अगर अफसरों की इच्छाओं के आगे घुटने तक टेक देती है तो इसका सीधा अर्थ हुआ कि उसकी भी मौन स्वीकृति है।

माननीय, हमें उम्मीद है कि इस फैसले पर आगे बढ़ने से पहले आप देखेंगे की इस फैसले के पीछे कौन हैं? किसने तय किया कि जयपुर को इस तरह फैलाया जाए? क्या नगर नियोजन के विशेषज्ञों से राय ली गई? क्या पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन हुआ? क्या ग्रामीण प्रतिनिधियों से संवाद किया गया? जवाब है—नहीं। इंस्टीट्यूट ऑफ टाउन प्लानर्स ऑफ इंडिया, राजस्थान चैप्टर ने इस विस्तार को अव्यावहारिक बताया था। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि मौजूदा क्षेत्र में ही मास्टर प्लान लागू नहीं हो पा रहा, तो नए क्षेत्र पर नियंत्रण कैसे होगा? और वैसे भी आप मौजूदा मास्टर प्लान को दो साल बढ़ा चुके हैं। फिर यह जल्दबाजी क्यों?

कम से कम हमें पड़ोसी राज्यों से तो सबक लेना चाहिए। गुजरात में आज अहमदाबाद के बराबर ही सूरत विकसित हो चुका है। बडोदरा, राजकोट और भावनगर भी तीव्र आर्थिक प्रगति की राह पर हैं। अहमदाबाद के तो पड़ोस में गांधीनगर भी समृद्ध शहर के रूप में पनप चुका है। क्या राजस्थान में हमने कोई ऐसी कोशिश की। आज जोधपुर और उदयपुर तक जयपुर से काफी पीछे हैं। फिर क्यों हम जयपुर का ओर सीमा विस्तार चाहते हैं। गुजरात के शहर और उनके आसपास के गांव सब एक साथ आगे बढ़ रहे हैं। लोगों को अपने गांव नहीं छोड़ने पड़ते। यहां हम पूरे गावों का उजाड़ने में लगे हैं। क्या अफसर भगवान बन गए हैं?

यह पता चल रहा है कि कई नए जुड़े इलाकों में बिल्डर-डवलपर्स पहले ही जमीनें खरीद चुके हैं। कन्वर्जन हो चुका है। अब अधिसूचना के बाद जमीनों की कीमतें आसमान छुएंगी। फायदा उन्हें होगा जिन्होंने पहले ही चौसर बिछा दी है। किसान, जिनकी जमीनें धीरे-धीरे कंक्रीट में बदल जाएंगी, सिर्फ तमाशबीन बनकर रह जाएंगे। उन्हें न तो उचित मुआवजा मिलेगा, न पुनर्वास की योजना। उनकी खेती की जमीन, चारागाह, और जीवनशैली सब कुछ शहरीकरण की भेंट चढ़ जाएगी।

जयपुर को अगर सच में विकसित करना है तो उसे ऊर्ध्वगामी (वर्टिकल) बनाना होगा। सैटेलाइट नगरों को सशक्त करना होगा। मेट्रो, शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार के केंद्र वहां बनाने होंगे। तभी जयपुर संतुलित और व्यवस्थित रूप से आगे बढ़ेगा। जयपुर मास्टर प्लान 2025 में बगरू, आमेर, चौमूं जैसे 11 सैटेलाइट नगरों को विकसित करने की योजना थी। लेकिन उन्हें सशक्त करने की बजाय अब वे शहरी विस्तार के शिकार बनते जा रहे हैं। यदि इन नगरों को मेट्रो और सार्वजनिक परिवहन से जोड़ा जाता, तो जनसंख्या का दबाव कम होता। स्थानीय शिक्षा और चिकित्सा संस्थानों की स्थापना से लोग स्वाभाविक रूप से इन क्षेत्रों की ओर आकर्षित होते। सांस्कृतिक पर्यटन को बढ़ावा देकर इन क्षेत्रों की पहचान बचाई जा सकती थी। वस्तुत: अब तो ये ग्यारह नगर भी जयपुर शहर के ही हिस्से हो चुके हैं। सैटेलाइट टाउन के लिए अब इनसे भी आगे के कस्बों को ढूंढना होगा।

जयपुर का निर्मित क्षेत्र 1991 से 2021 के बीच लगभग 160% बढ़ा, लेकिन हरियाली में 50% की गिरावट आई। क्षैतिज (हॉरिजॉन्टल ) विस्तार से बुनियादी सुविधाओं की लागत 50% तक बढ़ जाती है, जबकि वर्टिकल विकास में यह लागत कम होती है। शहर के तापमान में वृद्धि और जल संकट जैसी समस्याएं इसी अनियंत्रित फैलाव का परिणाम हैं। फिर भी जेडीए ने उसी रास्ते को चुना जो पहले ही विफल साबित हो चुका है।

विकास का मतलब सिर्फ फैलाव नहीं होता। विकास का मतलब होता है आत्मा को बचाए रखना। ‘पत्रिका’ का हमेशा प्रयास रहा है कि जयपुर की आत्मा बनी रहे, वर्ना इसे मुर्दा शहर बनते देर नहीं लगेगी। हमारे प्रधान संपादक गुलाब कोठारी ने जयपुर के मास्टर प्लान में मनमाने बदलाव के खिलाफ मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखा, जिसे अदालत ने याचिका मानते हुए कठोर फैसला लिया, जिससे मनमानी पर कुछ ‘अंकुश’ लग पाया। अब अंग्रेजीदा अफसर नए रास्ते खोजने लगे हैं। उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं कि आत्मा को मिटाकर जो शहर बनेगा, वह सिर्फ नक्शे पर जयपुर होगा, दिल में नहीं। हमें दिल्ली या गुरुग्राम नहीं बनना। गड्ढों से भरी सड़कें, रेंगते हुए वाहन और दूषित हवा। अफसरों की कृपा से हम इसी दिशा में बढ़ रहे हैं। माननीय, आपको कड़ा फैसला लेना होगा, नहीं तो जयपुर की दुर्दशा को कोई नहीं रोक पाएगा।