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अर्थव्यवस्था के लिए खतरे का संकेत है सोने-चांदी की चमक

विजय गर्ग, सीए और आर्थिक विशेषज्ञ

4 min read

जयपुर

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Neeru Yadav

Oct 17, 2025

भारत में सोना और चांदी की कीमतें जिस तेजी से बढ़ रही हैं, वह केवल धातुओं का उतार-चढ़ाव नहीं है, बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था की नब्ज का संकेत भी है। पिछले कुछ महीनों में, चांदी के दाम लगातार बढ़ते हुए उच्च स्तर पर पहुंचे, वहीं सोने ने भी अपने ऐतिहासिक भाव को पार कर लिया। यह वृद्धि उस समय हो रही है, जब अर्थव्यवस्था विकास दर और मुद्रास्फीति के बीच एक नाजुक संतुलन साधने की कोशिश कर रही है। दरअसल, सोना और चांदी सदियों से सुरक्षित निवेश माने जाते रहे हैं। आज भी जब वैश्विक बाजार में अस्थिरता है, तब इनकी चमक बढऩा स्वाभाविक है। हालांकि, इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि अर्थव्यवस्था में विश्वास का स्तर अपेक्षाकृत कमजोर पड़ा है।
भारतीय रुपया इस समय 87.67 प्रति डॉलर के आसपास है, जो पिछले वर्षों की तुलना में कमजोर है। रुपए की गिरावट अपने आप में संकेत है कि देश की आयात निर्भरता अभी भी अधिक है। व्यापार घाटा बढ़ रहा है। सितंबर 2025 में भारत का व्यापार घाटा 32 अरब डॉलर तक पहुंच गया, जिसमें सोना और चांदी का बड़ा योगदान है। बढ़ती आयात मांग न केवल विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव डालती है, बल्कि महंगाई की जड़ भी बनती है। कमजोर रुपया और महंगा आयात मिलकर उपभोक्ता कीमतों को बढ़ाते हैं। यही चक्र बार-बार अर्थव्यवस्था को अस्थिर बनाता है। वास्तविक चिंता यह है कि जब जनता का विश्वास वित्तीय बाजारों में कम होता है तो वह अपनी पूंजी को उत्पादन या निवेश के बजाय सोना-चांदी जैसे निष्क्रिय साधनों में लगाती है। यह पूंजी बाजार से निकलकर तिजोरियों में बंद हो जाती है। इससे न केवल औद्योगिक क्षेत्र को पूंजी की कमी होती है, बल्कि रोजगार और उत्पादन पर भी असर पड़ता है। इसलिए सोने की कीमत का बढऩा कई बार आर्थिक असुरक्षा का द्योतक भी होता है।
भारत की मौद्रिक नीति इस समय सावधानी के मोड में है। भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों को स्थिर रखा है, ताकि महंगाई पर नियंत्रण बना रहे, लेकिन वास्तविक ब्याज दरें महंगाई दर के करीब होने से लोगों को बैंक जमा या बांड से अधिक लाभ नहीं मिल रहा। जब वित्तीय साधनों से भरोसा घटता है, तब धातुएं वैल्यू स्टोर बन जाती हैं। यही प्रवृत्ति फिलहाल भारतीय बाजार में दिखाई दे रही है। वैसे, सरकार की कोशिश है कि सोने या चांदी के प्रति यह अत्यधिक आकर्षण अर्थव्यवस्था की दिशा को प्रभावित न करे। सॉवरेन गोल्ड बॉन्ड और गोल्ड री-साइक्लिंग मिशन जैसे कदम इसी रणनीति का हिस्सा हैं। इनका उद्देश्य यह है कि लोग भौतिक सोना खरीदने के बजाय कागजी निवेश करें, ताकि विदेशी मुद्रा का प्रवाह बाहर न जाए। हालांकि, इन प्रयासों के बावजूद भारत का वार्षिक सोना-चांदी आयात बिल 50 अरब डॉलर के आसपास बना हुआ है। स्पष्ट है कि आर्थिक संरचना में अब भी बचत और निवेश के बीच असंतुलन है।
हालांकि, सोना और चांदी के बढ़ते दामों का एक सकारात्मक पक्ष भी है। ये यह दिखाते हैं कि देश में निवेश योग्य आय बढ़ रही है। मध्यम वर्ग के पास अतिरिक्त पूंजी है, जिसे वह सुरक्षित रूप में रखना चाहता है। यह स्थिति बताती है कि उपभोग क्षमता और बचत दर, दोनों स्थिर हैं। लेकिन, अर्थव्यवस्था के लिए दीर्घकालिक स्वास्थ्य तभी संभव है जब यह पूंजी उत्पादक क्षेत्रों में लगे। वैसे, चांदी की बढ़ती कीमतों के पीछे औद्योगिक मांग भी एक बड़ा कारक है। अब यह धातु केवल आभूषणों तक सीमित नहीं, बल्कि सौर ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहनों और इलेक्ट्रॉनिक्स में भी आवश्यक घटक बन चुकी है। ग्रीन एनर्जी की ओर बढ़ते कदमों ने इसकी मांग को और बढ़ाया है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चांदी की आपूर्ति और मांग में भारी अंतर है, जिससे इसके भाव लगातार ऊपर जा रहे हैं।
वहीं, भारत की आर्थिक वृद्धि दर अब भी दुनिया की सबसे तेज दरों में है, यानी लगभग 6.8 प्रतिशत। लेकिन, इस वृद्धि का लाभ समाज के सभी हिस्सों तक समान रूप से नहीं पहुंच पा रहा। जब विकास का लाभ असमान रूप से बंटता है, तब असुरक्षा और अनिश्चितता बढ़ती है। यही वह वातावरण है, जिसमें लोग अल्पकालिक सुरक्षा के लिए दीर्घकालिक निवेश छोड़ देते हैं। सोने की चमक तब अर्थव्यवस्था की कमजोरी पर पड़ती हुई रोशनी बन जाती है। भारत को इस समय एक दोहरी चुनौती का सामना है। एक ओर वह उच्च विकास दर को बनाए रखना चाहता है, दूसरी ओर महंगाई और मुद्रा स्थिरता का दबाव है। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में ब्याज दरों, तेल के दामों और भू-राजनीतिक तनाव ने इस चुनौती को और बढ़ा दिया है। फेडरल रिजर्व द्वारा दरों में संभावित कटौती की घोषणा ने डॉलर को कमजोर किया, जिससे सोना-चांदी के भाव और ऊपर गए। इस प्रकार वैश्विक परिस्थितियां सीधे भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रही हैं।
इकोनॉमी के दृष्टिकोण से यह समय भारत के लिए एक महत्त्वपूर्ण मोड़ है। सरकार और रिजर्व बैंक, दोनों को संतुलन साधना होगा। एक ओर मुद्रास्फीति पर नियंत्रण, दूसरी ओर वृद्धि को गति देना होगा। वित्तीय अनुशासन, राजकोषीय घाटे की सीमा और निवेश के वातावरण को अनुकूल बनाए बिना इस संतुलन को बनाए रखना कठिन होगा। भारत को दीर्घकाल में अपनी अर्थव्यवस्था को आयातक मानसिकता से बाहर निकालना होगा। घरेलू उत्पादन, रिफाइनिंग और रीसाइक्लिंग के जरिए ही विदेशी मुद्रा के नुकसान को रोका जा सकता है। ऊर्जा, बुनियादी ढांचा और विनिर्माण में निवेश को बढ़ावा देकर ही स्थायी रोजगार सृजन और मुद्रा स्थिरता हासिल की जा सकती है। सोना और चांदी की चमक इस समय जितनी आकर्षक है, उतनी ही चेतावनी भी देती है। उनकी बढ़ती कीमतें बताती हैं कि लोग अभी भी अपने भविष्य को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। आर्थिक आत्मविश्वास तभी लौटेगा, जब रोजगार स्थिर होंगे, महंगाई नियंत्रित होगी और रुपया मजबूत रहेगा।
स्पष्ट है कि भारत की अर्थव्यवस्था आज संक्रमण के दौर में है। तेज विकास और अस्थिर संतुलन, दोनों साथ मौजूद हैं। यदि यह संतुलन बिगड़ा तो सोने की चमक और बढ़ेगी, लेकिन यदि स्थिरता बनी रही तो यही चमक अर्थव्यवस्था की शक्ति का प्रतीक बन सकती है। इसलिए चुनौती यह नहीं कि चांदी या सोना कितना महंगा है, बल्कि यह है कि भारत अपनी आर्थिक नीतियों को कितना स्थिर और संतुलित रख पाता है। यह कह सकते हैं कि सोने और चांदी की कीमतें आज भारतीय अर्थव्यवस्था के मूड इंडिकेटर बन गई हैं। जब भरोसा घटता है तो वे बढ़ जाती हैं। जब भविष्य पर विश्वास लौटता है तो उनका ताप कम होने लगता है। भारत के लिए अब यही समय है कि वह इस तापमान को संतुलन में रखे, ताकि अर्थव्यवस्था की असली चमक केवल धातुओं की नहीं, विकास और स्थिरता की हो।
साथ ही, सोना और चांदी की कीमतें केवल बाजार का सूचकांक नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था की मानसिकता का प्रतिबिंब हैं। जब भरोसा बढ़ता है, तो पैसा उद्योग में जाता है। जब अनिश्चितता बढ़ती है, तो वही पैसा धातुओं में सुरक्षित किया जाता है। आज भारत के सामने चुनौती यह नहीं कि कीमतें क्यों बढ़ रहीं हैं, बल्कि यह कि इन संकेतों को कैसे पढ़ा जाए और अर्थव्यवस्था को कैसे स्थिर रखा जाए। यदि भारत इन धातुओं की निर्भरता को कम कर सके तो यह न केवल आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम होगा, बल्कि मजबूत और संतुलित अर्थव्यवस्था की ओर बढऩे का प्रमाण भी।