
पत्रिका समूह के प्रधान सम्पादक गुलाब कोठारी (फोटो: पत्रिका)
संस्कृति सार्वकालिक और सार्वभौमिक होती है। प्रकृति पर आधारित होती है। सभ्यता समय और सत्ता के साथ बदलती है। मानव-पशु-पक्षी आदि का स्वरूप भी शाश्वत रूप में विद्यमान है। ये आत्मा के साथ-कर्मफल रूप में-बदलते हैं। हमारे शास्त्र सभी आत्मा के लिए लिखे गए हैं। गीता भी ब्रह्म (आत्मा)-कर्म का विज्ञान-शास्त्र ही है। न दर्शन है, न ही मनोविज्ञान बल्कि इनके सहारे भीतर जीने का प्रकाश-स्रोत है। कृष्ण ने क्यों कहा-निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
आज शिक्षा में ब्रह्म का स्थान अर्थ ने ले लिया, सभी कर्मों का लक्ष्य अर्थार्जन रह गया। न कोई सीमा अर्जन की, न लक्ष्य की मर्यादा। कमाना तो है, किन्तु कितना और क्यों-इसका उत्तर नहीं है। शिक्षा ने शरीर को साध्य बना दिया। सुख-सुविधा-भोग के लिए ‘अच्छा पैकेज’ चाहिए। दूसरी ओर महिला-शक्ति के समानता के नारों ने देश को नई सभ्यता में धकेलना शुरू कर दिया।
प्रकृति में न स्त्री है, न पुरुष, न पशु, न पक्षी। सभी आत्मा की योनियां हैं। मनुष्य ही कर्मों के फलस्वरूप अन्य शरीर धारण करता है। मनुष्य ही योनियों से मुक्त हो सकता है, अत: सर्वश्रेष्ठ योनि है। यह उल्लेखनीय है कि सभी योनियों के शरीर प्रकृति के एक ही सिद्धान्त पर कार्य करते हैं। प्रत्येक शरीर ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति है। ‘यथाण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ कहा गया है। प्रत्येक शरीर के केन्द्र में एक ही ब्रह्म प्रतिष्ठित है। ‘ममैवांशो जीव लोके जीवभूत सनातन:’-गीता।
मानव ने स्त्री-पुरुष दो भेद कर दिए। जबकि दो मिलकर पूर्ण होते हैं। शिक्षा ने जीवन को अर्थ-काम से जोड़कर बहिर्मुखी बना दिया। मानव का भीतरी स्वरूप ओझल हो गया। व्यक्ति स्वयं में प्रधान हो उठा। उसका प्राकृतिक स्वरूप और संचालन भी तिरोहित हो गया। आज एक ओर, स्त्री का सम्मान और सुरक्षा दांव पर है, दूसरी ओर-पुरुष-स्त्री का लिंगानुपात असमान हो चला। प्रति 1000 लड़कों के अनुपात में लड़कियों का औसत 920 के आसपास पहुंच गया है। भारत जैसे देश की जनसंख्या में इसके अर्थ समझ सकते हैं।
एक काल था जब हम कन्या भ्रूणहत्या, दहेज हत्या जैसे कलंकों के कारण स्वयं पीड़ित थे। आज इन आसुरी विकारों से काफी सीमा तक मुक्त हुए हैं। फिर कौनसे नए कारण उभरे और क्यों, समझने की आवश्यकता है। इसके लिए दो मार्ग हैं-एक सरकारी मार्ग-जहां व्यक्ति भी संसाधन की तरह देखा जाता है। सारा प्रबन्धन सर्वे और आंकड़ों से होता है, जिस प्रकार डाक्टर टेस्ट रिपोर्ट से निष्कर्ष निकालते हैं। सरकारी तंत्र तो देश की जीवनशैली, भूगोल, संस्कृति को आधार ही नहीं मानता। हमारे कई सामाजिक अभियान, सरकारी आदेश क्यों फेल होते हैं! हम विदेशी तंत्र को स्थापित करने का प्रयास करते हैं। हमारी आजादी का तंत्र आज भारतीयता से अनभिज्ञ है।
हमारा समाज पितृ सत्तात्मक है। बेटा (पुत्रैषणा) हर दम्पत्ति का पहला सपना है। पितर संस्था की निरन्तरता ही बेटे की प्राथमिकता है। इसमें महिलाएं भी बराबरी से शामिल रहती हैं। कन्या-भ्रूण हत्या पूर्णरूपेण स्त्रियों के हाथों ही होती है। इस मानसिकता को शिक्षा से नहीं बदल पाए। लैंगिक समानता के लिए-जागरूकता के लिए कानून लचर साबित हुए। आज भी कोई जागरूकता अभियान नहीं है।
शिक्षा ने नया आयाम खड़ा कर दिया। एकल परिवारों में सीमित परिवार का नारा। बेटा भी चाहिए, तब मरे कौन? ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ का नकली नारा सरकारी तंत्र के मुंह पर तमाचा ही है। आज तो तंत्र कन्या को सुरक्षा नहीं दे पा रहा। गांवों में स्कूल, भवन, अध्यापक, परिवहन का अभाव लड़कियों को हतोत्साहित करने के लिए पर्याप्त है।
स्त्रियों में उच्च शिक्षा ने नई जीवन शैली को जन्म देना शुरू कर दिया। देर से शादी अब चर्चा का विषय नहीं रहा। लिव-इन, अर्थात् सन्तान से मुक्ति। स्त्री स्वयं प्रजनन मुक्त होना चाह रही है। स्वयं स्त्री की भूमिका को नई सभ्यता से जोड़ना चाहती है। शिक्षा ने मानवीय संवेदना को भी बाहर कर दिया। जीवन पाठॺक्रम की भांति तटस्थ हो गया।
कभी सन्तान प्राप्ति के लिए दम्पती प्रार्थना करते थे। क्रियाओं में प्रकृति-ग्रह-दिवस-श्वास-प्रश्वास पर ध्यान, भी उतने ही महत्वपूर्ण अध्याय थे, जितना कि ब्रह्मचर्य। स्थूल शरीर का विषय न होकर, ब्रह्मचर्य, आत्मा का अंग है। दोनों में से जो भी प्रबल होगा-शुक्र या शोणित-वैसी ही सन्तान होगी। प्रजनन दैहिक क्रिया मात्र नहीं है, ब्रह्म का अन्य शरीर में स्थानान्तरण है। स्त्री में ब्रह्म को दस माह शरीर में धारण करने की क्षमता भी होनी चाहिए।
प्राकृतिक और पर्यावरणीय कारण लिंगानुपात को थोड़ा तो प्रभावित करते हैं, किन्तु भारत में अनुपात की गिरावट का मुख्य कारण सामाजिक और मानवीय हस्तक्षेप है, न कि प्राकृतिक जैविक कारण। अध्ययनों में पाया गया है कि जो महिलाएं पहले से बेटा नहीं रखतीं, वे अगले गर्भ धारण में लड़के के लिए प्रयास करती हैं। कन्या की आज भी भ्रूण हत्या से इंकार नहीं कर सकते। पुत्र के बाद आगे सन्तान न पैदा करने का निर्णय भी अनुपात को प्रभावित करता है। बढ़ते छोटे परिवार भी बड़ा कारण बनता जा रहा है।
कन्या जन्म के लिए शोणित (आर्तव) की प्रबलता मुख्य कारण है। स्त्री की भावना दूसरा प्रभावी कारण है। उच्च शिक्षा के आकर्षण ने स्त्रियों को पुरुषों की जीवनशैली की ओर तेजी से आकर्षित किया है। उनमें नारी सुलभ व्यवहार, संस्कार, प्रशिक्षण आदि सभी लक्षण पीछे छूट गए। न तो लड़कियों में मातृत्व के विषय चर्चा में रह गए, न ही घर पर माताएं उनको कुछ सिखा पा रही। भौतिक रूप दो शरीर स्वत: जीवन का निर्धारण करते रहते हैं। स्त्रियों की प्रजनन क्षमता ही घटती जाती है। यह भी कह सकते हैं कि कॅरियर के आगे अन्य प्राथमिकताएं टिक ही नहीं पातीं।
कॅरियर ही देर से शादी करने का-प्राकृतिक शक्तियों का समयोचित उपयोग न करने का कारण बनता जा रहा है। मातृत्व की भूमिका गौण होती जा रही है। समय के साथ प्रजनन तंत्र शिथिल होता जाता है। सन्तान प्राप्ति ही स्त्रियों के लिए कठिन हो जाता है। यह आत्मा (ईश्वर) से जुड़ा कार्य है, अत: भावप्रधान कर्म है। भाव बौद्धिक जीवन में वैसे ही कोने में पड़े रहते हैं। पौरुष के आधिक्य से स्त्रैण तंत्र पूर्ण विकसित हो भी नहीं पाता। इसमें भी वर्षों का नियमित अभ्यास चाहिए। परम्परागत जीवन में कन्याएं अपने घर-वर-परिवार के प्रति सदा जागरुक रहती थीं। हर उत्सव पर प्रार्थनाएं-पूजा करती थीं। अपने स्त्रैण गुणों का विकास करती रहती थीं। यही अभाव आज उनकी संख्या में अवरोध बन रहा है। विश्वभर में।
नारी मन में नारी सुलभ भाव, मातृत्व का माधुर्य, देश को सुसंस्कृत नागरिक देने का संकल्प शिक्षा का अनिवार्य अंग बन जाना चाहिए। ईश्वर के प्रसाद का अपमान न अभ्युदय होगा, न ही नि:श्रेयस !
Updated on:
04 Nov 2025 07:28 am
Published on:
04 Nov 2025 07:27 am
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