
बिहार में चुनावी समर अपने निर्णायक चरण में है और घोषणा पत्रों की जंग भी खुलकर सामने आ चुकी है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और महागठबंधन (इंडिया ब्लॉक) के घोषणा पत्रों के बीच मुख्य अंतर स्पष्ट है। महागठबंधन का दृष्टिकोण भावनात्मक और समाजवादी है, जो तत्काल राहत देता है पर दीर्घकालिक वित्तीय स्थिरता को खतरे में डाल सकता है। जबकि एनडीए का दृष्टिकोण विकासोन्मुख और निवेश-आधारित है, जो धीमा अवश्य है पर स्थायी परिणामों की दिशा दिखाता है। जहां महागठबंधन वोटरों को ‘सहज राहत’ का वादा करता है, वहीं एनडीए ‘रोजगार और आत्मनिर्भरता’ को नया सूत्र बनाकर चुनावी विमर्श को बदलना चाहता है। एनडीए ने अपने ‘संकल्प पत्र’ में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विकास, निवेश और रोजगार को मुख्य आधार बनाया है। एनडीए ने लोकलुभावन वादों से बचते हुए एक संतुलित दस्तावेज पेश किया है जो निरंतरता, प्रशासनिक अनुशासन और आर्थिक यथार्थ पर केंद्रित है। एनडीए के संकल्प पत्र में अगले पांच वर्षों में एक करोड़ से अधिक रोजगार अवसर सृजित करने का वादा किया गया है, जो सरकारी भर्तियों के साथ-साथ निजी क्षेत्र, कौशल विकास और उद्यमिता के माध्यम से पूरे किए जाएंगे। प्रत्येक जिले में मेगा स्किल सेंटर स्थापित करने, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई), रक्षा उत्पादन और टेक्सटाइल उद्योगों के क्लस्टर विकसित करने का खाका प्रस्तुत किया गया है। महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त करने के लिए ‘लाखपति दीदी’ योजना को विस्तारित कर ‘मिशन करोड़पति’ की घोषणा की गई है, जिसके तहत महिला स्वयं सहायता समूहों को बड़े पैमाने पर ऋण और प्रशिक्षण समर्थन मिलेगा। कृषि क्षेत्र में 1 लाख करोड़ के निवेश की योजना है- जिसमें फिश फार्मिंग, फूड प्रोसेसिंग और ग्रामीण कृषि ढांचा प्रमुख हैं। बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में 7 नए एक्सप्रेस-वे, 3600 किमी नई रेल परियोजनाएं और हर जिले में औद्योगिक पार्क स्थापित करने का रोडमैप रखा गया है। साथ ही पिछड़ी जातियों और गरीब वर्गों के लिए विशेष आर्थिक सहायता योजना और 10 लाख तक की सहायता देने का प्रस्ताव किया गया है। नीतीश कुमार ने यह भी कहा कि यह घोषणा पत्र ‘विकास की निरंतर यात्रा’ का हिस्सा है- जिसका लक्ष्य बिहार को ‘गरीबी से प्रगति’ की ओर ले जाना है। इसके विपरीत, महागठबंधन का घोषणा पत्र लोकलुभावन वादों से परिपूर्ण है। ‘बिहार का तेजस्वी प्रण’ शीर्षक से जारी इस दस्तावेज में हर परिवार को एक सरकारी नौकरी, पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) की बहाली, मुफ्त बिजली, छात्रों को भत्ता और महिलाओं को मासिक सहायता जैसे ढी वादे शामिल हैं। इन योजनाओं का आर्थिक बोझ अत्यंत भारी है। यदि ‘एक परिवार-एक नौकरी’ की नीति लागू होती है और अनुमानतः 1.25 करोड़ परिवारों को औसतन 1.5 लाख वार्षिक वेतन दिया जाता है, तो राज्य पर हर वर्ष लगभग 1.9 लाख करोड़ का नया भार आएगा जो उसकी मौजूदा वित्तीय क्षमता से ढाई गुना अधिक है। ओपीएस की बहाली और बिजली व वस्तुओं पर सब्सिडी से पूंजीगत व्यय में कटौती होगी, जिससे सड़क, उद्योग और शिक्षा जैसे दीर्घकालीन क्षेत्रों में निवेश की गति मंद पड़ सकती है। एनडीए का घोषणा पत्र अपेक्षाकृत व्यावहारिक जरूर दिखता है, लेकिन चुनौतियां कम नहीं हैं। बिहार की वित्तीय स्थिति पहले से दबाव में है। 2024-25 में राज्य का राजकोषीय घाटा सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का लगभग 9.2% था, जिसे 2025-26 में घटाकर 3% (करीब 32,700 करोड़) पर लाने का लक्ष्य रखा गया है। राज्य का ऋण जीएसडीपी अनुपात 38% है, जो देश में सबसे ऊंचों में से एक है। राजस्व व्यय 80% से अधिक है और वेतन, पेंशन व ब्याज भुगतान मिलकर राज्य की आय का 70% हिस्सा खा जाते हैं। ऐसे में बड़े निवेश और कल्याणकारी योजनाएं समानांतर रूप से चलाना आसान नहीं होगा। एनडीए की योजनाएं तभी सफल होंगी जब निजी निवेश आकर्षित हो, कर संग्रह में वृद्धि हो और केंद्र से पर्याप्त सहायता मिले। बिहार का औद्योगिक आधार कमजोर है, शहरीकरण दर कम है और भूमि उपयोग की जटिलताएं अब भी बाधा बनी हुई हैं। अतः एक करोड़ रोजगार का लक्ष्य तभी साकार होगा जब औद्योगिक निवेश धरातल पर उतरे। बिहार की सबसे बड़ी समस्या केवल संसाधनों की कमी नहीं, बल्कि व्यय-दक्षता और जवाबदेही का अभाव है। पिछले वर्षों में बड़ी परियोजनाएं अधूरी रह गईं, ढी केंद्रीय अनुदान खर्च नहीं हो सके। ऐसे में घोषणा पत्र चाहे किसी का भी हो, उसकी विश्वसनीयता तभी बढ़ेगी जब उसमें सार्वजनिक लागत का खुलासा, वार्षिक वित्तीय ऑडिट, और समयबद्ध क्रियान्वयन की स्पष्ट रूपरेखा दी जाए। असल सवाल यह नहीं कि कौन ज्यादा वादे करता है, बल्कि यह है कि कौन अपने वादों को टिकाऊ रूप में लागू कर सकता है। अब राजनीतिक ईमानदारी की असली परीक्षा वित्तीय गणित में है- हर रुपया कहां से आएगा, कहां खर्च होगा और उसकी निगरानी कैसे होगी। सबसे बड़ी चुनौती है- संवेदनशीलता और गणना के बीच संतुलन साधना। लोकलुभावन वादों से चुनाव जीते जा सकते हैं, पर विकास को टिकाऊ बनाने के लिए वित्तीय अनुशासन अनिवार्य है। राज्य को चाहिए एक ऐसा मार्गदर्शक नक्शा जो न तो केवल नारों पर टिका हो और न ही सपनों पर- बल्कि आंकड़ों और जवाबदेही पर आधारित हो। जैसे-जैसे चुनाव अभियान तेज होगा, मतदाताओं को नेताओं से एक ही सवाल पूछना चाहिए- ‘स्लोगन नहीं, हिसाब दिखाइए।’
Published on:
04 Nov 2025 02:36 pm
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