
Guru Nanak Jayanti
गुरु नानक देव जी के 556वें प्रकाशपर्व के अवसर पर विशेष
जब देश-विदेश में गुरु नानक देव जी का 556वां प्रकाश पर्व पूरी श्रद्धा व उल्लास से मनाया जा रहा है उस समय उनका जीवन, आचरण व संदेश वर्तमान काल के संदर्भ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। गुरु नानक देव जी भारत की अनोखी, अनूठी व बेजोड़ आध्यात्मिक माला के चमकदार मणके हैं व उनके द्वारा स्थापित सिख परंपरा पर हम भारतीयों को गर्व है। उन्होंने भारत की सनातन परंपरा के संवाद व दूसरे पंथों व मतों को समझने तथा उनके उत्कृष्टतम सिद्धांतों को उदार मन से स्वीकारने के सिद्धांत को प्रोत्साहित किया। उनकी वाणी है 'जब लग दुनिया रहिये नानक, किछु सुणीऐ किछु कहिअे' अर्थात् जब तक संसार में रहो कुछ सुनो और कुछ कहो। इस श्लोक में भी पहले वो जोर सुनने पर देते हैं और फिर कहने पर। अनेक भूगोलवेत्ताओं के अनुसार पुराण काल में पूरे एशिया या उसके बहुत बड़े हिस्से को जंबूद्वीप के नाम से जाना जाता था। भारत इस जंबूद्वीप का एक हिस्सा था। तीस वर्ष की आयु में 1499 से 1521 के मध्य अपनी चार उदासियों (लंबी यात्राओं) में पुराणों में वर्णित इस जंबूद्वीप का शायद ही कोई ऐसा कोना हो जो गुरुनानक ने अपनी पद यात्राओं से न नापा हो। उनकी इन यात्राओं का उद्देश्य साधुओं, मनीषियों व सूफियों का संग व दिव्य भक्ति का प्रचार था। कैलाश मानसरोवर से लेकर हरिद्वार, अयोध्या, काशी जहां कबीर चबूतरे पर उनका कबीर जी से संवाद भी हुआ, मणीकरण, लद्दाख, तिब्बत, भूटान, गोरखमता, नालंदा, कामरूप, बीकानेर, अजमेर, आबू, सिक्किम, अरुणाचल, कालीघाट (वर्तमान कोलकाता), तवांग के आगे बूमला स्थित पर्वत की चोटी, यरूशलम, शंघाई, अदन, फिलस्तीन, मिस्र, सूडान, अबैसीनिया, सीरिया, तुर्की, अजरबैजान, ईरान, तुर्किस्तान, अफगानिस्तान, बगदाद व मक्का तक गए। विभिन्न धार्मिक परंपराओं के संतों, मनीषियों, सूफियों व लामाओं से संवाद किया। इतने दुर्गम व दूर के अनेकानेक स्थानों पर जाने के कारण उन्हें तिब्बत में नानक लामा, रूस में नानक कामदार, नेपाल में नानक ऋषि, भूटान में नानक रिपोचिया, श्रीलंका में नानकचार्या, चीन में नानक फूसा, ईराक में नानक पीर, मिस्र में नानक वली, पाकिस्तान में नानक शाह व सऊदी अरब में प्रथम पातशाही वली हिंद के नाम से जाना जाता है।
भारत के गौरवशाली इतिहास में आदि शंकराचार्या के पश्चात गुरुनानक देव जी द्वारा 22 वर्षों में लगभग 28000 किलोमीटर की पदयात्रा (उदासियां) की गई। गुरु जी अपनी यात्राओं में सैकड़ों प्रकार के लोगों से मिले। विरोधियों से भी व प्रशंसकों से भी, चोरों, ठगों व लुटेरों से भी, पंडितों, मनीषियों, योगियों व तांत्रिकों से भी, बौद्ध लामाओं से भी, सूफियों, शेखों, काजियों और मुल्लाओं से भी। सर्वत्र उनके मृदुल स्वभाव व सत्यशील आचरण ने विजय पाई। कटुता कहीं भी नहीं आई। उन्होंने अपनी वाणी में फरमाया भी 'मिठत नीवी नानका गुण चंगिआइआं तत' अर्थात् जैसे फूल का सार इत्र में है वैसे ही जीवन में मधुरता व विनम्रता तमाम गुणों का सार है। यह नानक की ऐसी सिद्धि थी जिस पर सहज ही विश्वास करना कठिन है पर है सत्य। अनेकों विरोधियों ने उनके चरणों में आत्म-समर्पण किया, वह शास्त्रार्थ वैदुष्य को देखकर नहीं, अत्यंत प्रभावशाली आचरण और मधुर व्यवहार के कारण ही किया। देश के मध्यकालीन संतों में गुरु नानक ने सुधा लेप का काम किया। यह आश्चर्य की बात है कि विचार और आचार की दुनिया में इतनी बड़ी क्रांति लाने वाले गुरु नानक ने बिना किसी का दिल दुखाए, बिना किसी पर आघात किए नई संजीवनी धारा से प्राणी मात्र को उल्लासित भी किया व प्रेरित भी। गुरु नानक देव जी ने उस समय तक के महान संतों व सूफियों की वाणी को समझा और आचरण में उतारा। इसी का परिणाम था कि गुरु ग्रंथ साहिब में 6 सिख गुरुओं के अतिरिक्त 30 अन्य पंथों व धर्मों के संतों जैसे धन्ना जी, पीपा जी, कबीर जी, रैदास जी, त्रिलोचन जी, दादू जी, बाबा फरीद जी, नामदेव जी आदि की वाणी को गुरुग्रंथ साहिब में शामिल किया गया। उनके सरल नैतिक दर्शन में एक चुंबकीय आकर्षण था क्योंकि उन्होंने प्रतिपादित किया कि कोई भी स्त्री-पुरुष, किसी भी जाति पंथ वर्ग का, घर या पेशे के त्याग के बिना भी मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
उन्होंने ऊंच-नीच के भेद को नकारते हुए सामाजिक समरसता को बढ़ावा देना, जातियों की संकीर्ण दीवारों को तोड़ कर एक ही स्थान पर संगत करना तथा एक ही पंक्ति में मिल बैठकर भोजन ग्रहण करने की 'लंगर' परंपरा की शुरुआत की जिसे आज भी सिख परंपरा में पूरी शिद्दत के साथ निभाया जा रहा है। सिख परंपरा के पवित्रत्तम स्थल हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) के बारे में इसलिए कहा भी जाता है 'ब्राह्मण को यहां पर आते हुए देखा, क्षत्रिय को यहां से जाते हुए देखा, वैश्य को यहां पर नहाते हुए देखा, शूद्र को यहां पर खाते हुए देखा।' स्वर्ण मंदिर सहित सभी गुरुद्वारों में अपनाया जा रहा गुरु नानक का यह सूत्र आज के भारत में सभी प्रकार की ऊंच-नीच, जातपात व धर्मपंथ से ऊपर उठकर एक अच्छा और सच्चा नागरिक बनने की प्रेरणा देता है। उन्होंने अपनी वाणी में कहा भी- 'सगल बनसपति महि बैसंतर सगल दूध महि घीआ।। ऊंच नीच महि जोत समाणा घटि घटि माघउ जीआ' अर्थात जैसे सारी वनस्पति में अग्नि का निवास है और सारे दूध में घी विद्यमान होता है वैसे ही ऊंच-नीच, अच्छे-बुरे सबमें प्रभु की ज्योति समाई हुई है और प्रत्येक हृदय में वह प्रभु बसता है। आम आदमी की भाषा में लिखे व गाये जाने वाले गुरुनानक के शबद कीर्तन तीन मूलभूत त्रिरत्न सिद्धांतों पर जोर देते हैं जैसे ईमानदारी से काम व पुरुषार्थ (कीरत करो), ईश्वर का जप (नाम जपो) और निजी संपत्ति को मानवता की भलाई के वास्ते मिल बांटकर उपयोग करो व खाओ (वंड छको)। स्वयं गुरुनानक देव जी 1522 में करतारपुर साहिब आकर रहने लगने के पश्चात 1539 तक खेती भी करते रहे।
भावभीने और सामान्य ज्ञान से ओतप्रोत गुरुनानक के सैकड़ों शबद हैं जैसे 'रैन गवाई सोये के दिवस गवाया खाये, हीरे जैसा जन्म है कौडी बदले जाये', 'घर में घर दिखाए दे, सो सतगुरु पुरूख सुजान', 'न ओह मरे न ठागे जाये जिनके राम वसे मन माहि' जिन्होंने भक्तों का मन मोह लिया, क्योंकि उनमें अंत:करण को छू लेने की अद्वितीय क्षमता थी। गुरु नानक की साधना गा-गाकर की गई साधना है जिसका महत्त्व संगीत शास्त्र के मर्मज्ञ आसानी से समझते हैं। ओशो कहते हैं 'नानक ने परमात्मा को गा-गाकर पाया। गीतों से पटा है मार्ग नानक का। नानक ने न योग किया, न तप किया, न ध्यान किया। लेकिन गाया उन्होंने इतने प्राण से कि गीत ही ध्यान हो गए, गीत ही योग हो गए, गीत ही तप हो गए। नानक की साधना अभिप्सा, प्यास व समग्रता की साधना है। वह बाहरी रूढिय़ों या कर्मकांड पर नहीं टिकी हुई।' गुरु नानक सहित सभी सिख गुरुओं में भारतीय शास्त्रीय संगीत की अपार समझ थी जिस कारण गुरु ग्रंथ साहिब की पूरी वाणी को उपयुक्त रागों में निबद्ध किया गया ताकि आध्यात्मिक संदेश संगीत के संग घुलकर आत्मा को शांति व आनंदमय शीतलता प्रदान कर सके। इसी कारण शताब्दियों से अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में अर्धरात्रि के एक पहर को छोड़कर संगीतमय शबद कीर्तन पूरे दिन और रात निर्बाध रूप से गाया जा रहा है जो एक दुर्गम, कठिन और अजेय रिकार्ड के साथ ही सिख गुरुओं की दूरदृष्टि का कमाल है जिसे नमन किया जाना चाहिए।
गुरु नानक ने प्रकृति और पर्यावरण को सम्मान देते हुए (जो आज अत्यंत प्रासंगिक है) अपनी वाणी में कहा 'पवण गुरु, पाणी पिता, माता धरति महतु' अर्थात हमारा अस्तित्व, हमारी समस्त इंद्रियां व शब्द पवन से ही उत्पन्न होते हैं अत: पवण गुरु है। पानी जगत का पिता है क्योंकि जल से ही सब उत्पत्ति होती है। और धरती माता है। जैसे माता पुत्र को उठाए रहती है वैसे ही धरती सभी प्राणियों को बालक की तरह अपने ऊपर उठाए रहती है और अन्न उत्पन्न कर हम सभी का उदरपोषण करती है। धरती मां जन्म देने वाली मां से भी बड़ी है इसलिए धरती मां (मातृभूमि) के प्रति सदैव कृतज्ञ रहो और एहसान फरामोश कभी न बनो। देश की उस समय की परिस्थिति व बाहरी आतातायी हमलावरों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों पर शासकों से बगैर डरे गुरुनानक ने ही गत 2000 वर्षों में पहली बार भारत के लिए हिंदुस्तान शब्द का उपयोग करते हुए अपनी वाणी में कहा 'खुरासान खसमाना कीआ हिंदुसतान डराइआ, आपै दोसु न देई करता जमु कर मुगल चड़ाइआ, एती मार पई करलाणै तैं की दरद न आइआ' अर्थात खुरासान से आए हुए आक्रांताओं के अत्याचार से देश के लोग डरे हुए व पीडि़त हैं और हे ईश्वर आपको जनता के दर्द का अहसास क्यों नहीं हो रहा? नारी को बराबरी व सम्मान देना गुरु नानक का समसामयिक संदेश था। 15वीं शताब्दी के भारत में बाहरी हमलावरों के कारण बहू-बेटियों की रक्षा करना माता-पिता के सामने बड़ी चुनौती थी। इस कारण समाज में सती प्रथा, पर्दा प्रथा व जन्म के समय ही कन्या हत्या की कुरीतियां व कुप्रथाएं प्रचलित थी। कन्या के जन्म को अभिशाप माना जाता था। नानक ने इसका विरोध करते हुए कहा 'सो क्यूं मंदा आखिये जित जमै राजान्' अर्थात् उस स्त्री को तुम हीन कैसे कह सकते हो जो राजाओं, महाराजाओं और मनीषियों को जन्म देती है। उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति या परिवार अपनी नवजात जन्मी कन्या की हत्या करता है उसके साथ बेटी और रोटी का रिश्ता मत रखो।
सिख परंपरा में गुरु नानक का विशिष्ट, विलक्षण व अद्वितीय स्थान है इसलिए बाद के नौ गुरुओं को क्रमश: दूसरा, तीसरा, चौथा… दसवां नानक कह कर संबोधित किया जाता है। इसी परंपरा के दसवें नानक अर्थात् गुरु गोबिंद सिंह जी ने गुरु ग्रन्थ साहिब का संकलन करके सिखों को इस गं्रथ को ही भविष्य में अपना साक्षात ग्यारहवां गुरु मानने का निर्देश दिया। दिनकर जी अपने ग्रंथ 'संस्कृति के चार अध्याय' में लिखते हैं कि गुरुनानक की सबसे बड़ी शिक्षा यह थी कि परमात्मा विश्व के कण-कण में व्याप्त है इसलिए निखिल सृष्टि को ब्रह्ममय समझकर प्रणाम करो। गुरु नानक द्वारा प्रारंभ सिख परंपरा शुरू से ही प्रगतिशील रही तथा इसमें जातपात, ऊंच-नीच, सती प्रथा, पर्दा प्रथा, शराब और तंबाकू का वर्जन किया गया। उर्दू व फारसी के प्रसिद्ध शायर डॉ. मोहम्मद इकबाल ने गुरुनानक के संदेश का मूल्यांकन करते हुए कहा था: 'फिर उठी आखिर सदा तौहीद की पंजाब से हिंद को इक मर्दे कामिल ने जगाया ख्वाब से' लगभग पचपन साल पहले डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने गुरु नानक को स्मरण करते हुए लिखा था- 'पांच सौ वर्ष बीत गए। भारत वर्ष के विशाल आकाश के नीचे न जाने कितनी घटनाएं घटीं, धरती को न जाने कितनी बार रक्त से सिक्त होना पड़ा, अन्याय और शोषण ने न जाने कितने तांडव किए, पर नानक के प्रकाश की कार्तिकी पूर्णिमा का चांद अपनी स्निग्ध शोभा उसी प्रकार बिखेर रहा है, नानक की पवित्र वाणी इतनी ही स्निग्ध ज्योति विकीर्ण कर रही है। उतरो महान गुरो एक बार और उतरो। हम आपकी ऊंचाई तक नहीं पहुंच रहे हैं। आज भी मनुष्य की क्षुद्र अहमिका विक्षिप्त नर्तन कर रही है, आज भी भय और लोभ की आशंका और तृष्णा की धमा चौकड़ी व्याप्त है। एक बार और आओ, रक्षा करो मनुष्येत्तर की, धर्म की, सत्य की। बड़ी आशा और विश्वास से हम आपका स्मरण कर रहे हैं। जय हो आपकी अमर वाणियों की, जय हो आपकी शरणागीत की, जय हो आपकी निर्मल पवित्र स्मृति की, जय हो, जय हो।' आज जब देश गुरु नानक देव जी का 556वां प्रकाश पर्व मना रहा है तो डॉ. द्विवेदी के ये उदगार वास्तविक रूप से उतने ही प्रासंगिक हैं।
Published on:
04 Nov 2025 06:11 pm
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