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राजकाज और सामान्य व्यवहार की भाषा हिन्दी

पत्रिका समूह के संस्थापक कर्पूर चंद्र कुलिश जी के जन्मशती वर्ष के मौके पर उनके रचना संसार से जुड़ी साप्ताहिक कड़ियों की शुरुआत की गई है। इनमें उनके अग्रलेख, यात्रा वृत्तांत, वेद विज्ञान से जुड़ी जानकारी और काव्य रचनाओं के चुने हुए अंश हर सप्ताह पाठकों तक पहुंचाए जा रहे हैं।

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अपनी अमरीका यात्रा के दौरान हिन्दी की पैरवी हो या पत्रिका का कर्नाटक की राजधानी बंगलौर (अब बेंगलूरु) से प्रकाशन, कुलिश जी ने सदैव हिन्दी की गरिमा बढ़ाने के प्रयास किए। उनके ये प्रयास आजादी के तत्काल बाद उस वक्त ही शुरू हो गए थे जब पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए सिंधी भाषी लोगों को उन्होंने हिन्दी सिखाने का बीड़ा उठाया। हिन्दी दिवस (14 सितंबर) के मौके पर कुलिश जी के इन प्रयासों की झलक:

मुझसे अमरीका में पत्रकारों ने पूछा कि भाषायी समस्या का भारत में क्या रूप है? मैंने पहले तो यही कहा कि इस समस्या को दो टूक नहीं समझाया जा सकता। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि भारत की एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। सवाल यह भी था कि आप किस भाषा के पक्ष में हैं। भारतीय भाषा के पक्ष में अथवा हिन्दी भाषा के पक्ष में। मैंने समझाने का प्रयत्न किया कि भारतीय भाषाओं में हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है जो राजकाज एवं सामान्य व्यवहार की भाषा बन सकती है। मैं स्वयं सभी भारतीय भाषाओं के विकास की कामना करता हूं। हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं का प्रश्न अन्तर्विरोधी नहीं है। विभिन्न भाषायी राष्ट्रों को इसी रूप में समस्या का निदान खोजना होगा।
एक सवाल यह भी था कि क्या आपकी राय है कि अंग्रेजी को भारत में समाप्त कर दिया जाए। मैंने कहा- नहीं। अंग्रेजी समाप्त किए जाने की संभावना फिलहाल नहीं है। लेकिन भारतीयों को आपसी व्यवहार में अंग्रेजी की जरूरत नहीं है। उच्च शिक्षा, अंतरराष्ट्रीय व्यवहार, और व्यापार में उसका प्रयोग होता रहेगा जिसके लिए किसी कानूनी व्यवस्था की जरूरत नहीं है। अंग्रेजी के ज्ञान पर किसी तरह की रोकथाम नहीं हो किन्तु उसको कानूनी रूप से बनाए रखना बेमानी है। इस बीच एक साहब ने पूछा - आप इस समस्या का हल क्या सोचते हैं। मैंने कहा- हल करने का संकल्प चाहिए जो हमारी सरकार में नहीं है। दृढ़ संकल्प के अभाव में कोई विकल्प भी नहीं है।

16 मई 1968 को अमरीका में पत्रकारों से संवाद के दौरान (‘अमरीका एक विहंगम दृष्टि’ पुस्तक से )

उत्तर-दक्षिण के बीच सेतु है पत्रिका
राजस्थान पत्रिका का प्रकाशन कर्नाटक राज्य में दक्षिण भारत के प्रमुख नगर बंगलौर से भी प्रारम्भ होना सचमुच ही एक बड़ी घटना है। बंगलौर का यह प्रकाशन सीमोल्लंघन की परिभाषा में आता है। पत्रिका का यह भूमाभाव है जो उसे अधिकाधिक विस्तार दे रहा है। मेरे लिए इसका महत्व इसलिए भी है कि यह मेरे योगदान के बिना हो रहा है। इससे अधिक प्रसन्नता क्या हो सकती है? पाठकों के लिए यह घटना इसलिए महत्वपूर्ण कि उनका प्रिय समाचार पत्र राष्ट्रीय ऊंचाइयों की सीढ़ी चढ़ रहा है। राजस्थान पत्रिका अपने नाम में निहित भौगोलिक सीमाओं को लांघ रही है, यही राष्ट्रीय बनने की पहल है। राजस्थान पत्रिका का बंगलौर से प्रकाशन हिन्दी माध्यम से उत्तर- दक्षिण की भौगोलिक, राजनीतिक एवं मानसिक दूरी को पाटने में एक सेतु का काम करेगा और भारत के दोनों छोरों के बीच आदान प्रदान का हेतु बनेगा। राजस्थान पत्रिका हिन्दी की मुख्य धारा के प्रवाह को सुदूर दक्षिण तक पहुंचाने का साधन बनेगी। वैसे कर्नाटक को तो अहिन्दी भाषी कहना भी पूर्णत: उचित नहीं होगा। एक पीढ़ी पहले तो कर्नाटक की मुख्य भाषा ही संस्कृत थी और आज भी लाखों कन्नड़ भाषी लोग संस्कृत का प्रयोग करते हैं। संस्कृत की इस भाव भूमि में हिन्दी के प्रसार में वहां विशेष बाधा नहीं होनी चाहिए। कन्नड़ भाषा में भी संस्कृत शब्द भरे पड़े हैं और पड़ोस की दूसरी भाषाओं में भी तद्भव रूप में संस्कृत के शब्द है। कर्नाटक के साथ दक्षिण के अन्य राज्यों में हिन्दी भाषी भी दिन दिन बढ़ते ही जा रहे हैं। वहां लाखों की संख्या में स्थानीय लोग भी हिन्दी पढ़ते जा रहे हैं। उत्तर से सम्पर्क रखने में हिन्दी ही एकमात्र माध्यम है।

(3 मई 1995 को ‘पत्रिका के बंगलौर संस्करण की शुरुआत पर अग्रलेख के अंश)

..और शुरू हुआ हिन्दी पढ़ाने का क्रम

विभाजन के बाद बहुत सारे पंजाबी और सिंधी परिवार जयपुर में आकर बस गए थे। पंजाबी तो हिन्दी और उर्दू जानते थे इसलिए वे तो समाज में घुल-मिल गए। सिंधियों को भाषा संबंधी परेशानियां हो रही थी। मेरे एक सिंधी शरणार्थी मित्र की भावना थी कि राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के माध्यम से यदि सिंधियों को हिन्दी पढ़ाने का काम शुरू किया जाए तो इस समस्या का काफी हद तक निदान हो सकता है। साहित्य सदावर्त में पढ़ा चुकने का मेरा अनुभव भीतर ही भीतर हिलोरें मार रहा था। मैंने उन्हें स्वीकृति दे दी। राज्य सरकार के स्कूलों में कक्षाओं के बाद खाली समय में पढ़ाने का क्रम शुरू हो गया। दरबार स्कूल, महाराजा स्कूल में सिंधी लोगों को हिन्दी पढ़ाने का कार्य मैं करने लगा। भाषा और व्याकरण की शुद्धता तो शुरू से ही थी। कुछ धीरे-धीरे पढ़ाने के अनुभव ने ज्ञान बढ़ाया। यह सन 1948-49 की बात होगी। मुझे 21-22 की उम्र में ही बड़े-बड़े कवियों से मिलने का-सुनने का अवसर भी मिला।
(कुलिश जी के आत्मकथ्य आधारित पुस्तक ‘धाराप्रवाह’ से )