तीर-कमान चलते बच्चे। पत्रिका फोटो
Banswara News : तीर-कमान आपने रामायण-महाभारत टीवी सीरियलों में या फिर तीरंदाजी खेलों में ही देखे होंगे, लेकिन दक्षिण राजस्थान के जनजातीय अंचल में यह भीली हथियार आज भी बनता है, बिकता है और इस्तेमाल भी होता है। बांसवाड़ा शहर से करीब 15 किमी दूर उदयपुर रोड पर चंदूजी का गढ़ा में तीरगर समाज के करीब 20 परिवारों की रोजी-रोटी इसी से चलती है। पूरी तरह परम्परागत ढंग से लकड़ी से बने ये तीर-कमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित कई बड़े नेताओं को वागड़ आगमन पर भेंट किया जा चुके हैं। तीर-कमान बनाने की कलात्मक निपुणता ने चंदूजी का गढ़ा को पहचान तो दी है, लेकिन कारीगरों को कुछ मलाल भी है। बांस और अन्य प्रकार की लकड़ियों से तीर-कमान बनाए जाते हैं।
बनावट और गुणवत्ता के मुताबिक धनुष-बाण 100 रुपए से लेकर 3000 रुपए तक के होते हैं। बच्चों के लिए छोटे धनुष, फैशनेबल सजावटी व तीरंदाजी प्रशिक्षण के लिए अच्छी गुणवत्ता के धनुष-बाण बनाए जाते हैं। बाण भी कई तरह के बनते हैं। हिमांशु व मणिलाल तीरगर बताते हैं कि 300 परिवार हैं, लेकिन मेहनत ज्यादा और मुनाफा कम होने से युवा इस कला से विमुख हो रहे हैं।
बांसवाड़ा-डूंगरपुर के शहर, गांव-कस्बों में जनजाति विद्यार्थी परम्परागत तीर-कमानों से सीखते हैं। दक्षिण राजस्थान से ओलंपियन लिम्बाराम, धूलचंद डामोर, श्यामलाल मीणा, नंदकिशोर रावत, धनेश्वर मईड़ा, वकीलराज डिंडोर, सुरेश खडिय़ा, लालसिंह निनामा, नरेश डामोर, जयंतीलाल ननोमा जैसे कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय तीरंदाज निकले।
बनाने के बाद बेचने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ती है। वागड़ के परम्परागत मेलों बेणेश्वर धाम, घोटिया आम्बा मेला, गौतमेश्वर मेला आदि में जाकर बेचते हैं। घर पर एवं सड़क किनारे भी दुकान लगाते हैं।
शंकरलाल तीरगर, कारीगर, चंदूजी का गढ़ा
इस कला को जीवंत रखने के लिए सरकार कोई सहयोग या प्रोत्साहन नहीं देती। सरकार को इस बारे में विचार करना चाहिए।
लक्ष्मणलाल तीरगर, कारीगर
Updated on:
18 Oct 2025 01:56 pm
Published on:
18 Oct 2025 01:55 pm
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