प्रतिभा शर्मा
कुछ मरवाकर बिलों में घुसे थे
कुछ मारकर,
जो शेष रह गए थे
वे जीते-जी मर गए थे
कुछ को भड़काकर भेजा गया
कुछ को उकसाकर
जो सचमुच मारे गए
वे गरीब की औलाद थे
संख्याएं दोनों तरफ बढ़ रही थी
विलाप के सुर समान थे
और सिसकियों के भी,
लहू का रंग समान था
और कफन का भी,
लाशों से एक जैसी बू उठ रही थी
और बस्तियों से भी,
इसके पिता ने उसके पिता को बिलखते देखा
उसके भाई ने इसके भाई को
दोनों तरफ के दुख समरंगी थे
कोई भी जीवन हरा नहीं था
और नहीं था कोई नारंगी भी,
आंखों से जो बह रहा था
उस पानी का भी कोई रंग नहीं था
पर उष्णता
पहले से कहीं अधिक
बढ़ गई थी अब आंसुओं में
उस धुएं का रंग जरूर काला था
जो बस्तियों के साथ-साथ
दिलों को भी सुलगा रहा था
बस तहजीब हो गई थी
रंगहीन और गंधहीन
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