
कविता-पसंद का समाज
पूजा भारद्वाज
हम महिलाएं भी रही सम भागीदार ,
पितृसत्ता की नींव डालने से
सुदृढ़ प्राचीर के गठन तक ,
रही हम भी सम शोषिकाएं ,
कन्या भ्रूण वध, डाकिनी पिचाशिनी,
दहेज, घूंघट जैसे कुत्सित आतंकित कृत्यों में,
हमने खुद भी उकसाया एक स्त्री को,
घर की देहरी के भीतर,
घूंघट के फांसे में सिमट जाने को,
हमने सदा सराहा उस स्त्री को ,
जिसने कुचली अपनी आत्मा, घोंटे अपने स्वप्न,
मुस्कुराती रही हम भीतर ही भीतर,
अन्य स्त्रियों के आंसुओं का नमक चख चखकर ,
रही हम भी शामिल बताने में ,
बेटियों को उडऩे की हद,
साथ साथ खींची हमने
बहुओं के सिमटाव की परिधियां ,
समझााती रही हम भी बेटों को अंतर ,
अच्छी व बुरी स्त्री का,
बेटी को जन्म पर गुडिय़ा देने की,
बेटे को जन्म से ना रोने की,
सीख में हम भी थी सम सहयोगिनी,
फिर क्यों फोड़ती रही ठीकरा
सदा से पुरुष के सिर,
देती रही सदा ताने,
उलहाने पुरुष को ,
रोती रही अपनी व्यथा, दशा पर,
यह जानकर भी कि दो हाथ लगते हैं
सदा ताली बजने में ,
क्यों हम अपनी गलतियों का बोझा,
किसी और के कांधे डाल,
अपने ही ग्लानि के भार से दबती रही ,
क्यूं?
क्यूं?
हमारे पास सृष्टि निर्माण का गर्भ है,
संसार की बागडोर थामे है हमारे हाथ,
अबला या दोयम दर्जे की नहीं,
ब्रह्मांड की मुखिया हैं हम,
स्वीकारो तो ये खुद,
हमारे पास, हां हमारे पास,
कोख का धरातल है,
संस्कारों के बीज,परवरिश की खाद है,
विचारों, भावनाओं के मौसम है,
और ये हमारे कुशल कारीगर हाथ,
किसी भी मानव को इंसान बना सकते हैं,
इसलिए बैठा लो मस्तिष्क के कोने-कोने,
समाज के धरातल की बुनियाद हमारे भरोसे है,
तो तराश दो ना उसे अपने मनमाफिक,
ढहा दो सभी लैंगिक पूर्वाग्रहों के गढ़,
और कर दो खड़ा एक समाज
अपनी पसंद का,
याद रखना ,
समाज शिकायतों के ठीकरे फोडऩे,
तानों , उलाहनों से नहीं बदलते,
बदलते हैं वो जर्जर वैचारिक परती को छांटकर ,
नई वैचारिक जलोढ़ बिछाने से ।
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