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कविता-तनहा तनहा

कविता

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कविता-तनहा तनहा

कविता-तनहा तनहा

अश्विनी भार्गव

रिश्तों की...
डोर तोड़ कर...
खामोशी की...
चादर ओढ़ कर...
अपने ही...
ख्यालों में गुम...
मैं...
खुद से...
बात करता हूं!!
भीड़ से दूर...
तनहाई में...
खुद को..
तनहा तनहा...
बेबस बेबस ...
लाचार ....
महसूस करता हूं!!
वहम था मेरा..
कि...
कुछ मेरे अपने हैं...
अब जाना ..
कि...
उनके भी...
बहुत से अपने हैं!!
कल्पना से दूर...
उनके...
वो ..
अटूट और..
हकीकत के रिश्ते हैं...
मुझसे तो...
महज..
चंद अधूरे सपने हैं!!
खड़ा रहता हूं...
रिश्तों की कतार में...
जो बढ़ती जाती है..
और मैं बार बार...
अंत में आ जाता हूं ..!!
इंतजार में..
जिंदगी का सफर..
यूं ही...
गुजार देता हूं!!
आखिर में...
मैं फिर...
तनहा तनहा...
बेबस बेबस ...
लाचार ....
रह जाता हूं!!

पढि़ए एक और कविता

हमारी चिंताएं

सन्तोष पटेल

तुम तकिया, लिहाफ
चादर, रजाई में परेशान हो
आज किस रंग का सजे बिछावन पर
इसकी ही चिंता लगी है
चिंता इस बात की भी है कि क्या खाएं
आज नाश्ते में
लंच में क्या बने
और डिनर कुछ ऐसा जो हो लंच से अलग
पूरी मीनू तैयार है तुम्हारी।

बरसात में टप टप टपकते ओरियानी
सिर पर हिलता हुआ पलानी
टिन की टूटी छत
बिछावन पर सदर-बदर पानी
घर का हर हिस्सा भीगा हुआ
क्या कमरा क्या चुहानी

तुम्हें तो सावन में कजरी
गाने हैं, सुनाने हैं,
और झाूला याद आने हैं
पर नहीं पढ़ सकते तुम
हमारे मड़ई के दर्द को
उनकी बेबसी की कजरी
हमारे घर के उस घुनाए खम्भे को
जो हमारी मुफलिसी की कहानी कहता है

तुम्हें इंतजार है अपने मनभावन की
हमें इंतजार है सावन की
ताकि हो सके रोपनी
और उग सके धान
जिसके बदौलत तुम्हारी थाली में
आ सके बिरयानी और पुलाव
जीरा राइस या प्लेन राइस

बहुत अंतर है तुम्हारी-हमारी चिंताओं में
तुम्हारी चिंता भरे में हैं
हमारी चिंता भरने में है।