जयपुर। हम अक्सर मानते हैं कि यादें सिर्फ़ दिमाग़ में रहती हैं। लेकिन क्या हो अगर उनका एक हिस्सा शरीर में भी बसता हो? एंग्लिया रस्किन यूनिवर्सिटी (ARU) के नए अध्ययन ने यह साबित किया है कि अगर हम खुद को बचपन के रूप में देखें — भले कुछ पलों के लिए — तो हम उन बचपन की यादों तक पहुंच सकते हैं जिन्हें हम खो चुका समझते थे।
शोध में 50 वयस्कों को शामिल किया गया। उन्हें एक स्क्रीन के सामने बैठाया गया, जिस पर उनका चेहरा लाइव दिखाया जा रहा था। कुछ प्रतिभागियों के चेहरों को विशेष सॉफ्टवेयर की मदद से उनके बचपन के चेहरे में बदल दिया गया।
जब वे हिलते या सिर घुमाते, स्क्रीन पर चेहरा भी वैसा ही हिलता - बिल्कुल वास्तविक की तरह। धीरे-धीरे उन्हें लगा कि स्क्रीन पर दिख रहा बच्चा वास्तव में वही हैं।
इसके बाद सभी प्रतिभागियों से उनके बचपन और पिछले एक साल की यादों के बारे में बात की गई। जिन लोगों ने अपने बचपन वाला चेहरा देखा था, उन्होंने बचपन की यादें ज़्यादा विस्तार, भावनाओं और सजीवता के साथ साझा कीं। बाकी प्रतिभागियों की यादें उतनी गहराई वाली नहीं थीं।
दिलचस्प बात यह रही कि यह प्रभाव केवल बचपन की यादों पर दिखा, हाल की यादों पर नहीं।
शोधकर्ताओं के मुताबिक हमारा शरीर सिर्फ हमें चलाता नहीं, बल्कि हमारे अनुभवों को भी दर्ज करता है — जैसे कोई गंध, हरकत, या उस पल की भावना। यही अनुभव हमारे दिमाग़ में यादों की बनावट तय करते हैं।
जब शरीर की संवेदनाएं बदलती हैं, तो दिमाग़ के लिए उन पुरानी यादों तक पहुंच का तरीका भी बदल जाता है।
अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता डॉ. उत्कर्ष गुप्ता कहते हैं,
उनके अनुसार, यादें केवल मानसिक नहीं होतीं, बल्कि शरीर से भी जुड़ी होती हैं — यानी उस समय हम अपने शरीर में जैसा महसूस करते थे, वैसी ही स्थिति यादों को जगाती है।
वैज्ञानिक इसे "बॉडिली सेल्फ-कॉन्शसनेस" कहते हैं — यानी अपने शरीर के प्रति जागरूकता, नियंत्रण और स्थिति का एहसास। हमारा मस्तिष्क दृष्टि, स्पर्श और गति के संकेतों से यह अनुभव बनाता है। जब इन संकेतों में बदलाव आता है, तो व्यक्ति की “स्वयं की अनुभूति” भी बदल सकती है। पहले हुए वर्चुअल रियलिटी के प्रयोगों में भी देखा गया है कि शरीर की ऐसी भ्रामक छवियां व्यक्ति की स्मृति पर असर डालती हैं। इस नए अध्ययन में पहली बार पूरे शरीर की बजाय केवल चेहरे पर ध्यान दिया गया क्योंकि चेहरा हमारी पहचान का सबसे निजी हिस्सा होता है। जब व्यक्ति ने अपने बचपन वाला चेहरा देखा, तो उसे अपने शुरुआती ‘स्वयं’ से दोबारा जुड़ने का एहसास हुआ।
यह प्रयोग तथ्यों वाली यादों (जैसे नाम या जगह) को बेहतर नहीं बना सका, लेकिन एपिसोडिक मेमोरी यानी भावनात्मक व अनुभवात्मक यादों को ज़रूर जीवंत कर गया। प्रतिभागियों ने उस पल का वातावरण, मौसम और अपनी भावनाओं को बारीकी से याद किया। वैज्ञानिकों का मानना है कि बचपन के चेहरे को देखकर मस्तिष्क उन्हीं न्यूरल पैटर्न्स को दोबारा सक्रिय कर देता है, जिनसे वे यादें बनी थीं।
क्या यह प्रभाव सिर्फ़ इसलिए हुआ कि लोगों ने बच्चे को देखकर बचपन की यादें सोचीं?
शोधकर्ताओं का जवाब है – नहीं।
क्योंकि यह असर केवल गहराई और भावनात्मकता में दिखा, तथ्यों की सटीकता में नहीं। इसका मतलब है कि यह असर “शरीर में बसने वाली यादों” से जुड़ा है, न कि मनोवैज्ञानिक सुझाव से।
भविष्य में शोधकर्ता ऐसी तकनीकों को और परिष्कृत करने की योजना बना रहे हैं — जैसे एआई आधारित बच्चों जैसी अधिक वास्तविक छवियों के साथ प्रयोग।
संभावना है कि ऐसी तकनीकें स्मृति खो चुके या ट्रॉमा से गुज़रे लोगों को उनकी पुरानी ज़िंदगी के हिस्सों से फिर से जोड़ने में मदद करें।
स्मृतियां अक्सर संदर्भ से जुड़ी होती हैं — किसी पुराने घर की गंध, बारिश की आवाज़, या बचपन के हाथों की अनुभूति।
यह अध्ययन बताता है कि हमारा शरीर खुद एक चाबी है, जो उन बंद दरवाज़ों को खोल सकता है। प्रोफेसर जेन ऐस्पेल कहती हैं, यह खोज हमें याद दिलाती है कि स्मृति कोई स्थायी संग्रह नहीं, बल्कि एक जीवंत प्रक्रिया है — जो इस बात पर भी निर्भर करती है कि हम खुद को कैसे देखते हैं। कभी-कभी, यह जानने के लिए कि हम कौन थे, हमें कुछ पल के लिए फिर वही बनना पड़ता है। यह अध्ययन Scientific Reports नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
Published on:
13 Oct 2025 05:50 pm
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