जयपुर। हर भोजन के बाद कुछ न कुछ बच जाता है पर क्या यह बचा हुआ खाना प्लास्टिक की जगह ले सकता है? मोनाश यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने यह कर दिखाया है। टीम ने खाद्य अपशिष्ट से प्राप्त शर्करा को ऐसे प्राकृतिक प्लास्टिक में बदल दिया है जो लैंडफिल में जमा होने के बजाय स्वयं नष्ट हो जाते हैं। यह नया पदार्थ खाने की पैकिंग, फसलों की सुरक्षा और समुद्रों में तैरते पेट्रोलियम आधारित प्लास्टिक की जगह ले सकता है।
शोधकर्ताओं ने यह फिल्में किसी रासायनिक प्रयोगशाला में नहीं बनाई, बल्कि उन्हें "उगाया"। दो प्रकार के मिट्टी में पाए जाने वाले बैक्टीरिया — Cupriavidus necator और Pseudomonas putida — उनकी "लिविंग फैक्ट्री" बन गए। जब इन्हें ग्लूकोज और फ्रुक्टोज का मिश्रण खिलाया गया, तो इन सूक्ष्मजीवों ने अपनी कोशिकाओं के भीतर प्लास्टिक जमा कर लिया। बाद में वैज्ञानिकों ने उसे निकाला, पिघलाया और लगभग 20 माइक्रोन मोटी पतली फिल्मों में ढाल दिया।
अध्ययन के सहलेखक एडवर्ड एटनबरो ने कहा, “यह शोध दिखाता है कि खाद्य अपशिष्ट को टिकाऊ, कम्पोस्टेबल और गुणानुसार बदले जा सकने वाले अति पतले फिल्म्स में बदला जा सकता है। PHAs की बहुमुखी क्षमता हमें रोजमर्रा के उपयोग के पदार्थों को बिना पर्यावरणीय नुकसान के पुनः कल्पना करने की आज़ादी देती है।”
Cupriavidus necator ने एक कठोर पॉलिमर PHB बनाया, यह चमकदार और मजबूत था, लेकिन भंगुर भी। वहीं Pseudomonas putida ने mcl-PHA नामक मुलायम प्लास्टिक बनाया जो टूटने के बजाय फैलता है। दोनों को मिलाने पर वैज्ञानिकों ने ऐसा मिश्रण पाया जो सामान्य प्लास्टिक जैसा दिखता और व्यवहार करता है, लेकिन उपयोग के बाद स्वाभाविक रूप से सड़ जाता है।
फ्रुक्टोज खिलाने पर C. necator ने अपने वजन का 60 प्रतिशत तक PHB तैयार किया, जबकि ग्लूकोज पर यह 45 प्रतिशत रहा। P. putida ने फ्रुक्टोज पर 22 प्रतिशत और ग्लूकोज पर 18 प्रतिशत mcl-PHA बनाया। माइक्रोस्कोप से देखा गया कि C. necator की कोशिकाएँ PHB से भरकर लगभग 30 माइक्रोन तक फैल गईं, जबकि P. putida की कोशिकाएँ छोटी लेकिन कई छोटे पॉलिमर कणों से भरी थीं। हर बैक्टीरिया ने एक अलग प्रकार की चेन-मॉलिक्यूल संरचना बनाई, जिससे प्लास्टिक की अपनी विशिष्ट पहचान बनी और उसका स्रोत सीधे खाद्य अपशिष्ट से जुड़ गया।
PHB लगभग 175°C पर पिघला जबकि mcl-PHA सिर्फ 40°C पर मुलायम हो गया। दोनों के मिश्रण ने दो पिघलन बिंदु दिखाए, एक ऊंचा, एक नीचा, जिससे यह पदार्थ कमरे के तापमान पर मजबूत और गर्म होने पर लचीला बना रहा। 20 माइक्रोन मोटी फिल्मों ने पूरी तरह क्रिस्टल नहीं बनाए, बल्कि छोटे, अधिक लचीले ढाँचे विकसित किए जिससे बिना टूटे समान रूप से खिंचाव संभव हुआ।
यह पूरी प्रक्रिया पेट्रोलियम पर निर्भर नहीं करती, बल्कि छोड़े गए खाद्य पदार्थों में मौजूद शर्करा पर आधारित है। ये शर्कराएँ — जैसे स्टार्च और कृषि अवशेष, बैक्टीरिया के लिए भोजन बनती हैं। यह प्रक्रिया नवीकरणीय और परिपत्र है, जिसमें ऊर्जा की खपत कम होती है और अपशिष्ट लगभग नहीं के बराबर होता है। माइक्रोब्स हल्के अम्लीय वातावरण में भी लगातार काम करते रहे, जिससे यह औद्योगिक स्तर पर उपयोग योग्य साबित हुई।
हर साल प्लास्टिक उत्पादन बढ़ता जा रहा है जबकि रीसाइक्लिंग पीछे रह गई है। ऐसे में यह बायोप्लास्टिक एक नई दिशा देता है, जो कचरे से पैदा होता है, न कि कचरा बनाता है। मोनाश का यह अध्ययन दिखाता है कि सूक्ष्मजीवों की वृद्धि और पॉलिमर मिश्रण को नियंत्रित कर ऐसे प्लास्टिक बनाए जा सकते हैं जो दिखने और उपयोग में समान हैं, परंतु इस्तेमाल के बाद स्वाभाविक रूप से विघटित हो जाते हैं।
शोध दल अब Great Wrap और Enzide जैसी कंपनियों के साथ मिलकर इसके बड़े पैमाने पर उपयोग का परीक्षण कर रहा है। यह प्राकृतिक फिल्में फलों-सब्जियों की पैकिंग, कम्पोस्टेबल कंटेनरों की लाइनिंग या दवाओं के जैव-विघटनीय कोटिंग में काम आ सकती हैं। यह केवल पैकेजिंग नहीं, बल्कि सोच में बदलाव है, ऐसा बदलाव जिसमें “कचरा” संसाधन बन जाता है। अगर बैक्टीरिया भोजन के अवशेष खाकर ऐसा प्लास्टिक बना सकते हैं जो खुद ही गायब हो जाए, तो शायद “वेस्ट” शब्द की परिभाषा ही बदल जाए। यह अध्ययन Microbial Cell Factories जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
Published on:
07 Oct 2025 05:43 pm
बड़ी खबरें
View Allखास खबर
ट्रेंडिंग