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इलाज के नाम पर लूट का कारोबार, स्वास्थ्य सेवा की डिग्रियां ज्यादा, ‘जमीर’ कम पड़ गया, खौफनाक सच…!

MP News: रीवा से आई खबर ने दहला दिया दिल, मेडिकल स्टोर संचालक के खुलासे के बाद मेडिकल स्टोर पर लगा ताला, लेकिन साधारण सी ये कार्रवाई उठा गई बड़े-बड़े सवाल...

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MP News(फोटो: सोशल मीडिया)

MP News: पंकज श्रीवास्तव@पत्रिका:रीवा से आई यह खबर किसी छोटे शहर की साधारण पुलिस कार्रवाई नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की सेहत का एक्स-रे है। खबर यह है कि एक मेडिकल स्टोर संचालक खुलेआम कैमरे के सामने कहता मिला-रीवा के डॉक्टर नकली दवाएं लिखते हैं, हम बेचते हैं; 50 की दवा 300 में बिकती है। जब प्रशासन ने कार्रवाई की, तो दुकान पर ताले पड़ गए, पर एक सवाल सुरसा की तरह मुंह खोल कर सामने खड़ा है- आखिर मरीजों की जिंदगी से इतना बेरहम मजाक कैसे होने दिया जा रहा है। कौन हैं ये लोग जो नीचता की सभी सीमाएं पार कर चुके हैं।

हमारे बीमार तंत्र की कहानी

यह मामला किसी एक दुकान, एक डॉक्टर या एक शहर का नहीं है। यह हमारे उस बीमार तंत्र की कहानी है, जहां इलाज का पेशा अब ‘धंधा’ बन चुका है। जहां बीमारी जितनी लंबी खिंचे, दवा उतनी महंगी बिके और डॉक्टर-डीलर दोनों की जेब उतनी भारी हो। खबर बताती है कि न केवल नकली दवाएं धड़ल्ले से बेची जा रही थीं, बल्कि मेडिकल कॉलेजों तक सप्लाई की जा रही थीं। यानी जो जगहें इलाज सिखाने के लिए बनीं, वही बीमारी बांटने का अड्डा बन गईं।

कमिशन सबसे ज्यादा

स्वास्थ्य क्षेत्र में मुनाफे की भूख अब जानलेवा स्तर तक पहुंच चुकी है। रिपोर्ट बताती है कि सर्जिकल दवाओं और उपकरणों पर सबसे अधिक कमीशन तय है- यानी जितना बड़ा जोखिम, उतना बड़ा लाभ। डॉक्टर से लेकर मेडिकल स्टोर तक, सबकी जेबें मरीज से सीधी जुड़ गई हैं। 50 की दवा 300 में बेचना कोई मामूली चूक नहीं, बल्कि सुनियोजित लूट है। यह भी उल्लेखनीय है कि कार्रवाई के बाद दुकानदार ने खुदकुशी का प्रयास किया। यह प्रशासनिक दबाव का नहीं, बल्कि अपराध के उजागर होने का परिणाम था। लेकिन हमारे तंत्र में अक्सर ‘गुनाह’ से ज्यादा ‘गुनहगार का बहाना’ सुना जाता है। सवाल यह नहीं कि वह दुकानदार क्यों टूटा, बल्कि यह है कि कितनी और ऐसी दुकानें आज भी खुली हैं, जहां नकली दवाओं के साथ भरोसा भी बेचा जा रहा है।

स्वास्थ्य व्यवस्था में डिग्री बहुत, जमीर कम पड़ गया

आज स्वास्थ्य व्यवस्था में डिग्री तो बहुत हैं, पर जमीर कम पड़ गया है। जब डॉक्टर खुद फार्मा कंपनियों से कमीशन लेकर ‘ब्रांडेड नकली’ दवाएं लिखते हैं, तो मरीज किससे न्याय मांगे? सरकार की ड्रग इंस्पेक्शन एजेंसियां साल में एक-दो छापे मारकर तस्वीर खिंचवा लेती हैं, जबकि असली कारोबार चलता रहता है। यह सच्चाई है कि नकली दवा केवल नकली नहीं, हत्या का धीमा तरीका है। और जिस समाज में हत्या भी मुनाफे में गिनी जाए, वहां इंसानियत की हालत क्या होगी, अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं।

अब जरूरत छापेमारी की नहीं, बल्कि...

अब केवल छापेमारी नहीं, बल्कि सिस्टमेटिक रिफॉर्म की जरूरत है। दवा वितरण प्रणाली को पूर्णत: डिजिटलाइज करने व हर बैच, हर बिक्री, हर डॉक्टर की पर्ची का एक राष्ट्रीय डेटाबेस रखने की जरूरत दिखने लगी है। ड्रग इंस्पेक्टरों की जवाबदेही तय हो। नकली दवा मिले तो उन पर तत्काल एक्शन हो। मेडिकल कॉलेजों में फार्मा कंपनियों की घुसपैठ पर रोक लगाई जाए। कोई डॉक्टर या केमिस्ट दोषी मिले, तो लाइसेंस रद्द कर जेल भेजा जाए। नकली के इस कारोबार से जो ठगा जा रहा है वो भरोसा है।

रीवा की यह घटना केवल एक स्टोर पर लगी सील नहीं है। यह हमारे स्वास्थ्य तंत्र के नैतिक दिवालियेपन पर लगी मुहर है। इसके दाग आसानी से नहीं मिटेंगे।