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Rajasthan News: राजस्थान में नगर निकाय चुनावों में महापौर, सभापति और चेयरमैन के चुनाव को लेकर बड़ा बदलाव होने जा रहा है। 16 साल बाद एक बार फिर मेयर का चुनाव सीधे जनता द्वारा कराने की तैयारी चल रही है। इस बदलाव के तहत अब पार्षदों की बजाय आम जनता ही नगर निगमों के महापौर और नगर निकायों के प्रमुखों को चुनेगी।
इस प्रस्ताव पर शहरी विकास एवं आवास (UDH) विभाग में गहन मंथन चल रहा है। यूडीएच मंत्री झाबर सिंह खर्रा ने इस संबंध में बड़ा संकेत देते हुए कहा कि इस मुद्दे पर अंतिम फैसला दिवाली के बाद लिया जाएगा। सरकार इस बदलाव से पहले विधायकों, सांसदों और अन्य जनप्रतिनिधियों से राय लेने की प्रक्रिया शुरू करने जा रही है।
राजस्थान में 2009 में पहली बार मेयर का चुनाव सीधे जनता द्वारा कराया गया था। उस समय यह व्यवस्था लागू की गई थी कि आम लोग अपने मताधिकार के जरिए नगर निगमों के प्रमुख को चुन सकें। हालांकि, इस व्यवस्था में कई विवाद सामने आए थे। मेयर और पार्षदों के बीच आपसी टकराव और असहमति के कारण कई बार नगर निगमों के कामकाज पर असर पड़ा था।
इसके बाद सरकार ने इस व्यवस्था को बदलकर मेयर का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से पार्षदों द्वारा कराने का फैसला लिया। अब 16 साल बाद एक बार फिर पुरानी व्यवस्था को लागू करने पर विचार हो रहा है।
वर्तमान व्यवस्था में मेयर और सभापति पार्षदों द्वारा चुने जाते हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में कई खामियां सामने आई हैं। कई विधायकों ने सरकार को पत्र लिखकर शिकायत की है कि अप्रत्यक्ष रूप से चुने गए मेयर और सभापति सही तरीके से काम नहीं कर रहे हैं। उनके और पार्षदों के बीच आपसी टकराव बढ़ रहा है, जिससे नगर निगमों और निकायों के विकास कार्य प्रभावित हो रहे हैं।
विधायकों का तर्क है कि अगर मेयर और सभापति का चुनाव सीधे जनता द्वारा किया जाए, तो न केवल उनकी जवाबदेही बढ़ेगी, बल्कि भ्रष्टाचार में भी कमी आएगी। जनता द्वारा चुने गए प्रमुखों पर जनहित में काम करने का दबाव अधिक होगा, क्योंकि उनकी जवाबदेही सीधे जनता के प्रति होगी।
पिछली कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में भी मेयर के चुनाव को लेकर नीतिगत बदलाव देखने को मिले थे। दिसंबर 2019 में गहलोत सरकार ने सत्ता में आने के बाद मेयर का चुनाव प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली से कराने का फैसला लिया था। इसके तहत जयपुर में कांग्रेस की ज्योति खण्डेलवाल पहली निर्वाचित मेयर बनी थीं।
हालांकि, उस समय जयपुर नगर निगम में बोर्ड बीजेपी पार्षदों का बना था। इस वजह से मेयर और बोर्ड के बीच कई बार टकराव की स्थिति पैदा हुई। कई महत्वपूर्ण फैसले नहीं हो सके और विकास कार्यों में देरी हुई। इसके बाद गहलोत सरकार ने अपने ही फैसले को बदलते हुए मेयर का चुनाव फिर से अप्रत्यक्ष प्रणाली से कराने का निर्णय लिया था।
प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली के कई फायदे बताए जा रहे हैं। पहला, इससे मेयर और सभापति की जवाबदेही सीधे जनता के प्रति होगी। जनता द्वारा चुने गए प्रमुख अपने कार्यकाल में जनहित के कार्यों को प्राथमिकता देंगे, क्योंकि उनकी साख और अगला चुनाव जनता के समर्थन पर निर्भर होगा। दूसरा, भ्रष्टाचार और अनियमितताओं में कमी आएगी, क्योंकि पार्षदों के बीच होने वाली गुटबाजी और सौदेबाजी की संभावना कम होगी।
तीसरा, प्रत्यक्ष चुनाव से जनता की भागीदारी बढ़ेगी और स्थानीय नेतृत्व को और मजबूती मिलेगी। विशेषज्ञों का मानना है कि इससे नगर निगमों और निकायों में पारदर्शिता बढ़ेगी और विकास कार्यों को गति मिलेगी।
हालांकि, प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली लागू करने में कुछ चुनौतियां भी हैं। 2009 में जब यह व्यवस्था लागू की गई थी, तब मेयर और पार्षदों के बीच टकराव की स्थिति कई बार देखने को मिली थी। अगर मेयर और बोर्ड अलग-अलग दलों से हों, तो आपसी समन्वय की कमी के कारण कामकाज प्रभावित हो सकता है।
इसके अलावा, प्रत्यक्ष चुनाव में धनबल और बाहुबल का प्रभाव बढ़ने की आशंका भी रहती है। सरकार को इन चुनौतियों से निपटने के लिए ठोस रणनीति बनानी होगी।
यूडीएच मंत्री के मुताबिक मेयर और सभापति के चुनाव का फॉर्मूला तय करने के बाद निकाय वार्डों के परिसीमन की प्रक्रिया को अंतिम रूप दिया जाएगा। परिसीमन की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और जल्द ही इसका गजट नोटिफिकेशन जारी होगा। इसके बाद ओबीसी आयोग के आंकड़े आने पर निकाय आरक्षण की लॉटरी प्रक्रिया शुरू होगी। सरकार 'एक राज्य, एक चुनाव' की नीति के तहत सभी निकाय चुनावों को एक साथ कराने की योजना बना रही है। इससे न केवल समय और संसाधनों की बचत होगी, बल्कि चुनावी प्रक्रिया भी सुगम होगी।
Updated on:
17 Oct 2025 06:26 pm
Published on:
17 Oct 2025 06:07 pm
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