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कब शुरू हुई महाकाल की सवारी? सिंधिया-होलकर वंश ने दिया ‘भव्य स्वरूप’, जानिए उज्जैन की इस अनंत आस्था की कहानी

MP News: उज्जैन आज एक बार फिर महाकाल के जयकारों से गूंज उठा है। सात घंटे में दो भव्य सवारियां निकाली जाएंगी। पहली सवारी निकली, शिवमय हुआ उज्जैन। सालभर महाकाल की सवारी का इंतजार करते हैं भक्त, क्योंकि ये महज एक यात्रा नहीं, बल्कि समय, संस्कृति और श्रद्धा का जीवंत उत्सव है, जिसका अपना रोचक इतिहास है। क्या आप जानते हैं किसने की थी महाकाल की सवारी की शुरुआत... राजा भोज और सिंधिया से कैसा कनेक्शन...

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Mahakal ki Sawari history Facts

Mahakal ki Sawari history Facts (फोटो सोर्स: सोशल मीडिया/एक्स)

MP News: महाकालेश्वर की आज दो सवारियां निकाली जा रही है। पहली सवारी निकल चुकी है। मंदिर के बाहर भक्तों की भीड़ बेसब्र थी, जिनकी आखें शिव के दर्शन कर धन्य हो गई हैं। किसी के हाथों में फूलों की थाली है, किसी के हाथ आरती की... महाकाल की सवारी के मार्ग के दोनों ओर बैरिकेड्स लगे हैं, पूरा क्षेत्र महाकाल के जयकारों से गूंज उठा है। यह नजारा है महाकालेश्वर मंदिर से लेकर महाकाल सवारी के मार्गों का। जहां से महाकाल की सवारी निकाली जा रही है।

आज ये परम्परा बेहद खास हो चली है, क्योंकि यहां सात घंटे के भीतर ही महाकाल की दो भव्य सवारियां निकाली जा रही हैं। भगवान महाकाल के दिव्य रूपों में सजी रथ यात्रा, जिससे न सिर्फ मंदिर नगरी बल्कि पूरा प्रदेश शिवमय हो गया है। बता दें कि महाकाल की सवारियों का इंतजार भक्त पूरे साल करते हैं। सावन, भाद्र और कार्तिक महीने में भक्त यहां आते हैं... दर्शन कर खुद को धन्य पाते हैं, दरअसल महाकाल की सवारी महज धार्मिक यात्रा या आयोजन नहीं है, बल्कि समय, संस्कृति और श्रद्धा के जीवंत उत्सव की एक परम्परा है।

क्या है महाकाल की सवारी?

महाकालेश्वर मंदिर से निकलने वाली सवारी उज्जैन की आत्मा मानी जाती है। यह परंपरा सदियों पुरानी है। सावन और भाद्रपद और कार्तिक शुक्ल पद के सोमवारों को भगवान महाकाल अपने भक्तों का हाल जानने उनके बीच निकलते हैं। जो भक्त उनसे मिलने मंदिर नहीं आ पाते, महाकाल खुद उनके पास पहुंच जाते हैं। इस सवारी में महाकाल जहां चांदी की पालकी में बैठकर निकलते हैं, तो उनके साथ होते हैं, मंदिर के पुजारी, कर्मचारी। रथ, पालकी, घोड़े, हाथी और झांकियों से सजी सवारी मंदिर से आरंभ होती है। नगर का भ्रमण करती है। इस दौरान शिवमय हुए महाकाल की सवारी के हर रास्ते भक्त फूलों से उनका स्वागत करते हैं, घंटों की ध्वनियां, शंख नाद और जय महाकाल के उद्घोष से पूरा उज्जैन भक्ति के रंग में डूबा नजर आता है। संगीत, भजन मंडलियों के समूह, कभी डमरू, कभी चंग की धुनें यहां नए रिकॉर्ड बनाती हैं।

इस बार खास क्या?

इस बार खास यह है कि 7 घंटे में दो सवारियां निकाली जा रही हैं, एक अभी 4 बजे शुरू हो गई तो दूसरी रात 11 बजे निकाली जाएगी। पहली सवारी नागचंद्रेश्वर दर्शन से जुड़ी है, जबकि दूसरी महाकाल हरिहर मिलन का स्वरूप होगी।

पहली बार कब निकली थी सवारी?

इतिहास बताता है कि उज्जैन में यह परंपरा लगभग मराठा काल (18वीं शताब्दी) से चली आ रही है। कहा जाता है कि जब सिंधिया शासन ने मंदिर का पुनर्निर्माण कराया, तभी पहली बार महाकाल की सवारी का भव्य आयोजन किया गया। उस समय यह सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान नहीं था, बल्कि नगर की सुरक्षा और समृद्धि का प्रतीक माना जाता था। महाकाल की सवारी को 'नगर के रक्षक देवता' के रूप में देखा जाता था। आज भी इसे शक्ति का प्रतीक माना जाता है।

महाकाल की सवारी का महत्व?

महाकालेश्वर भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एकमात्र ऐसा ज्योतिर्लिंग है जो, दक्षिणमुखी है। यानी भगवान का मुख दक्षिण दिशा की ओर है। ये भगवान शिव का ऐसा स्वरूप है जो मृत्यु और काल की दिशा में स्थापित है। यही कारण है कि जब महाकाल की सवारी निकलती है, तो लोग मानते हैं कि 'स्वयं मृत्यु पर विजय पाने वाले शिव नगर भ्रमण पर निकले हैं कि अपने भक्तों का हाल जान सकें। जो उनके दरबार नहीं पहुंच पा रहा, उसे दर्शन दे सकें।

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इस दौरान यहां हर गली, हर चौक को दीपों से सजाया जाता है। महिलाएं आरती लेकर खड़ी रहती हैं। कुछ जगहों पर ढोल-नगाड़े, कहीं पारंपरिक नृत्य और कहीं शिव तांडव की झांकियां भी नजर आती हैं।

सवारी का मार्ग और माहौल

महाकालेश्वर मंदिर से शुरू होकर यह सवारी रामघाट, दुर्गा मंदिर, सोलहखंडा, कोतवाली चौक, मंगलनाथ मार्ग और हरसिद्धि मंदिर होते हुए वापस मंदिर पहुंचती है। इस दौरान पुलिस प्रशासन, नगर निगम और मंदिर समिति की ओर से सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए जाते हैं। ड्रोन कैमरों से निगरानी, भीड़ प्रबंधन के लिए वालंटियर और महिला सुरक्षा दल भी तैनात रहते हैं।मंदिर प्रबंधक के मुताबिक, 'यह पहली बार है जब एक ही दिन में दो सवारियां 7 घंटे के अंदर निकाली जा रही हैं। विशेष संयोगों ने इस परम्परा को और भी खास बना दिया है।

ऐसे की जाती है भस्म आरती, आप भी करें दर्शन

आस्था के साथ अर्थव्यवस्था भी जुड़ी

महाकाल की सवारी केवल धार्मिक परम्परा नहीं, बल्कि उज्जैन की स्थानीय अर्थव्यवस्था का उत्सव भी है। सिर्फ एक सवारी के दौरान हजारों फूल, सैकड़ों किलो प्रसाद, झांकियों और सजावट पर लाखों रुपए खर्च होते हैं। इसके अलावा होटल, स्थानीय दुकानों और हस्तशिल्प बाजारों की बिक्री में कई गुना बढ़ोतरी होती है।

इतिहास की झलक बड़ी रोचक

-1- महाकालेश्वर मंदिर का उल्लेख स्कंद पुराण में मिलता है। लेकिन महाकाल की सवारी का नहीं।

-2- 11वीं शताब्दी में राजा भोज ने मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था।

-3- 1235 ई. में इल्तुतमिश ने आक्रमण किया, मंदिर खंडित हुआ।

-4- 18वीं शताब्दी में मराठा काल में मंदिर फिर से अपने वैभव में लौटा।

-5- तभी से महाकाल की भव्य सवारी का प्रारंभ हुआ।

-6- कहावत है कि, 'जहां महाकाल की सवारी निकले, वहां काल भी सिर झुकाता है।' ऐसे में इस परम्परा को शक्ति का प्रतीक माना जाता है।

प्रशासन की चुनौतियां

हर सवारी में लगभग 2 से 3 लाख श्रद्धालु जुटते हैं। भीड़ पर नियंत्रण, उनकी सुरक्षा, मार्ग की सफाई, ट्रैफिक प्रबंधन और आपातकालीन चिकित्सा सेवाएं, ये सब मंदिर प्रशासन की बड़ी जिम्मेदारी होती हैं। इसके साथ ही पुलिस फोर्स, सीसीटीवी कैमरे, मंदिर कर्मचारी, राज्य सरकार के सहयोग से चुनौतियों से निपटा जाता है।

एक साथ तीन संयोग, इसलिए निकाली जाएगी दो सवारी

आज की खास हो चली महाकाल की सवारी को लेकर मंदिर के पुजारी आशीष पुजारी कहते हैं कि, कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष से बाबा महाकाल प्रत्येक सोमवार को नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं, आज बाबा का सोमवार भी है, दूसरा आज वैकुंठ चतुर्दशी के दिन भगवान शिव ने सृष्टि का, ब्रह्मांड का भार फिर से भगवान विष्णु को सौंपा था। तो आज भी महाकाल बाबा रात में विष्णु को ये भार वापस सौपने जा रहे हैं। वहीं आज प्रदोष भी है। शिवजी के प्रदोष होने के कारण महाकाल की सवारी का महत्व और भी बढ़ गया है। मंदिर समिति, उसके कर्मचारी, पुलिस प्रशासन और राज्य सरकार भी इस परम्परा को सुरक्षित बनाने के लिए पूरी तैयारी करते हैं। बाकायदा प्लान बनाकर इस परम्परा को संयुक्त व्यवस्था के तहत निभाया जाता है। पालकी और मूर्ति की रक्षा का दायित्व मंदिर के पुजारियों और कर्मचारियों का रहता है। वे पालकी के साथ चलते हैं।

मंदिर के पुजारी आशीष से patrika.com की सीधी बात

सबसे बड़ी चुनौती- भीड़ कंट्रोलिंग

आशीष बताते हैं कि कंट्रोलिंग मंदिर समिति और प्रशासन के लिए सबसे बड़ी चुनौती रहता है। वर्तमान में भक्तों की संख्या बहुत बढ़ गई है। पहले इतनी भीड़ नहीं होती थी। बैरिकेडिंग की व्यवस्था पहले नहीं होती थी। आजकल ये व्यवस्था की जाती है। पहले पुलिस फोर्स की इतनी जरूरत नहीं थी, जितनी आज है। अब पुलिस फोर्स की संख्या बहुत बढ़ गई है। मंदिर में पहले बैंड नहीं था। अब महाकाल मंदिर समिति ने अपना बैंड बनाया है। जो बाबा की सवारी में आगे-आगे चलता है। इस तरह समय की जरूरत के मुताबिक व्यवस्थाओं का इंतजाम किया जाता रहा है।

अर्थव्यवस्था और पर्यटन: जहां धर्म वहां स्वत: जुड़ जाती हैं नई-नई व्यवस्थाएं

महाकाल की सवारी केवल एक परम्परा नहीं बल्कि उज्जैन की अर्थव्यस्था और संस्कृति भी इससे जुड़ी है, ऐसे में कहना चाहूंगा कि जहां पर धर्म है, वहां पर सभी व्यवस्थाएं ऑटोमेटिक जुड़ जाती हैं। पहले लोग केवल धार्मिक उद्देश्य से उज्जैन आते थे। अब धर्म के साथ पर्यटन भी लोगों के आने का एक मकसद बन गया है। आजकल लोग सोचते हैं तीर्थ यात्रा पर जाएंगे तो एक पंथ दो काम हो जाएंगे। बाबा के दर्शन के साथ ही घूमने का मौका भी मिल जाएगा।

पुराणों में है उल्लेख: नहीं मिलता कोई पौराणिक उल्लेख

माना जाता है कि अनादिकाल से ही बाबा महाकाल उज्जैन में भ्रमण पर निकलते हैं। आशीष पुजारी कहते हैं कि महाकाल की सवारी का कोई पौराणिक उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन इतिहास में ये जरूर दर्ज है कि मराठी राजशाही परिवार सिंधिया के समय पर महाकाल सवारी के भव्य रूप की शुरुआत हुई। उसी काल में इस परम्परा का विस्तार किया गया था।

इस विषय को लेकर वर्षों से सवारी के साथ राजा-महाराजा की पौषाक धारण कर सबके आकर्षक का केंद्र बनने वाले स्वामी दिलमिलाके यानी पं. दिनेश रावल का कहना है कि इतिहासकारों और प्राचीन ग्रंथों के अनुसार, ग्यारहवीं शताब्दी की पांडुलिपियों में महाकाल सवारी का उल्लेख मिलता है।

महाकाल की सवारी पहले और अब: पहले लकड़ी की पालकी में निकलते थे महाकाल

आशीष बताते हैं कि उस समय की सवारी और आज की सवारी में बहुत फर्क आ गया है। उस समय सवारी 4 बजे निकाली जाती थी, तो 5 बजे बाबा मंदिर लौट आते थे। अब 4 बजे निकलते हैं, तो अब 6.30 से 7 बज जाते हैं उन्हें लौटने में। पहले महाकाल लकड़ी की बनी हुई पालकी में नगर भ्रमण पर निकलते थे। अब चांदी की पालकी में भक्तों का हाल जानने निकलते हैं। पहले 50-100 की संख्या में भक्त होते थे। आज लाखों श्रद्धालु महाकाल के दर्शन करते हैं। परिवर्तन यही दिखता है, लेकिन मंदिर की परम्परा का जो पूजन-अर्चन है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं।

महाकाल की सवारी आयोजन नहीं, एक परम्परा- आशीष पुजारी

महाकाल की सवारी एक आयोजन नहीं है, बल्कि एक परम्परा है। महाकालेश्वर यहां एक राजा, एक महाराजा के रूप में विराजे हैं। महाराजा का यह दायित्व होता था कि अपनी प्रजा की रक्षा करना, प्रजा से मिलकर उसका हाल जानना, यही दायित्व निभाने महाकाल अनादिकाल से नगर भ्रमण पर निकल रहे हैं। ये भक्तों और भगवान के बीच की कड़ी है।

वर्षों से महाकाल सवारी में शामिल होने वाले उज्जैन के पंडित दिनेश रावल स्वामी ने पत्रिका को बताया-

राजा भोज ने दिया राजकीय उत्सव का रूप

परमार वंश के महान शासक राजा भोज ने इस परंपरा को एक राजकीय उत्सव का रूप दिया था। उन्होंने सवारी में नटों, लोक कलाकारों, संगीतकारों और विभिन्न लोक परंपराओं को सम्मिलित किया। राजा भोज स्वयं भी पालकी के आगे अपने लाव-लश्कर के साथ चलकर भगवान महाकाल को राजकीय सम्मान प्रदान करते थे।

ढाई सौ साल पहले सिंधिया वंश ने दिया भव्य और नया रूप

ढाई सौ साल पहले, मराठा शासनकाल में सिंधिया वंश के संस्थापक राणौजी सिंधिया ने महाकाल मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और भगवान महाकाल की सवारी परंपरा को नया रूप दिया।

राणौजी स्वयं भी सवारी में शामिल होते थे

उन्होंने इसमें नए रथों, गजराजों और सजीव लोक परंपराओं को जोड़ा, जिससे यह आयोजन और अधिक भव्य बन गया। राणौजी स्वयं भी सवारी में शामिल होते थे और पालकी के आगे चलकर भगवान महाकाल को राजाधिराज का दर्जा देते थे। इसके बाद स्वतंत्रता पूर्व काल तक सिंधिया और होलकर राजवंशों के प्रमुख महाकाल की सवारी में राजकीय रूप से सम्मिलित होते रहे। वे पालकी के आगे चलकर यह संकेत देते थे कि राज्य का वास्तविक शासक स्वयं महाकालेश्वर ही हैं।