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पैसों की चमक के कारण खो गई रिश्तों की ऊष्मा

डॉ. गौरव बिस्सा

4 min read

जयपुर

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Neeru Yadav

Sep 08, 2025

एक या डेढ़ दशक पहले की सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति एक दूसरे पर निर्भर होते थे। आपसी रिश्तों में गर्माहट दिखती थी क्योंकि परस्पर निर्भरता थी, लोगों को एक दूसरे की परवाह थी। जैसे मेहमान आने पर एक पड़ोसी दूसरे से चारपाई लेने आए, यह निर्भरता थी। अब सभी धनाढ्य हैं। निर्भरता को या परवाह करने को अब कमजोरी माना जाने लगा है। इस परवाह में स्नेह छिपा होता था, जुड़ाव बढ़ता था और अहंकार नहीं होता था। अब हर सुविधा के लिए पैसा तैयार है। ‘पैसा फेंको, तमाशा देखो’ - इस समाज का नया गुरुमंत्र प्रतीत होता है। पैसे से उपलब्ध होने वाले संसाधनों ने आपसी प्रेम को मानो पूरी तरह से समाप्त कर दिया है। व्यक्ति अपने मित्र, भाई, और यहां तक कि माता पिता पर भी निर्भरता नहीं चाहता। उसे लगता है कि पैसा फेंककर कुछ भी मिल सकता है। इसी सोच के चलते वर्तमान युवा येन केन प्रकारेण सिर्फ धन कमाने में व्यस्त है। यहां यह सोचने योग्य बात है कि क्या पैसे से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है?
रिश्तों की संवेदना और उसमें बसने वाला प्रेम अब समाप्ति की ओर है। हर रिश्ते को बनाये रखने के लिए पैसा हाजिर है। माता पिता की सेवा हो या नवजात शिशु का पालन पोषण, घर पर भोजन निर्माण हो या छोटे मोटे घरेलू कार्य- इन्हें संपादित करने के लिए पैसे देकर सेवक रख लेना नया शगल है। आपत्ति सेवक रखने से नहीं, अपितु समस्या रिश्तों के तारों के ढीले पडऩे की है। इस वजह से व्यक्ति के अवचेतन मस्तिष्क में आपसी स्नेह भाव में कमी तथा मन के रिश्तों में खटास आ रही है। वर्तमान में व्यक्ति पैसा खर्च करने को तो तैयार है परन्तु समय देने में उसे आपत्ति है। बस यही प्रवृत्ति समाज को खोखला किए जा रही है। सोचिए कि कितने फीसदी माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं या समय दे रहे हैं? वे पैसा देकर ट्यूटर रखते हैं, बच्चों को हॉबी क्लास में भेजते हैं, लेकिन समय नहीं दे पाते। माता पिता की सेवा में भी कमोबेश यही हालात हैं। यह चिंताजनक है।
आपसी परवाह के कारण पहले मनुष्य एक दूसरे के प्रति कृतज्ञता का भाव रखते थे। अब कृतज्ञता की अभिव्यक्ति करने के लिए भी पैसे दिए जा रहे हैं। माता पिता के प्रति कृतज्ञता दिखाने के लिए सेवकों का हुजूम है। बच्चों के प्रति स्नेह दिखाने के लिए ट्यूटर्स और कोच की भीड़ है। मित्रों के लिए कृतज्ञता दिखाने के लिए उपहारों की बाढ़ है। परन्तु इन सबके बीच एक चीज छूट गई है और वह है आपसी प्रेम, सद्भाव और रिश्तों की प्रगाढ़ता। इसी पैसे फेंकने की प्रवृत्ति के कारण रिश्ते बहुत जल्दी दम तोडऩे लगे हैं। आज के काल में आपको दस वर्ष पुराने मित्र ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगे। रिश्ते बनने का अब सिर्फ एक ही कारण है और वह है स्वार्थ। स्वार्थ न रहा तो रिश्ता खत्म होने में देर नहीं लगाई जा रही क्योंकि अब निर्भरता और परवाह तो है ही नहीं। हर व्यक्ति स्वच्छंद है। यह दुखद है। रिश्तों की ऊष्मा को बचाने के लिए ‘पैसों’ की जगह ‘परस्पर स्नेह’ को प्राथमिकता देना ही उत्तम जीवन का आधार होना चाहिए।
जीवन दूसरों की परवाह करने और संबंधों पर टिका है। पेशा चाहे कोई भी हो; व्यक्ति की असली ताकत है परवाह करना और प्रेमपूर्ण सम्बन्ध बनाना। काम सिर्फ सम्बन्ध ही आते हैं। सम्बन्ध अच्छे तभी बन सकते हैं जब आपमें समानुभूति का भाव हो। समानुभूति का अर्थ है खुद को सामने वाले व्यक्ति की परिस्थिति में डालकर देखना। ऐसा करते ही आपका नजरिया बदल जाता है और आपके संबंध लंबे समय तक टिके रहते हैं। संबंध सिर्फ औपचारिकता नहीं होते। संबंधों को प्रेम से, परवाह करने की प्रवृत्ति से तथा सामने वाले के दृष्टिकोण को समझने की शक्ति से सींचना पड़ता है। वर्तमान समय में संबंधों का निर्माण करने वाले, उन्हें बनाये रखने वाले और अहंकार को त्यागने वाले ही सफल हैं। कॉर्पोरेट जगत के अनेकानेक शोध अध्ययनों से पता चला है कि नए कर्मचारी के चयन में चौरासी फीसदी नियोक्ता, संबंधों का निर्माण करने और कार्मिकों की परवाह करने वाले व्यावहारिक कर्मचारी को सबसे अच्छा मानते हैं. इसका अभिप्राय है कि चौरासी फीसदी नियोक्ताओं के लिए कार्मिक का व्यवहार, उसकी शिक्षा और योग्यता से ज्यादा महत्त्व रखता है. मानवीय व्यवहार समय की आवश्यकता है।
डॉक्टर्स में मानवीय व्यवहार के गुणों को विकसित करने वाले महान चिकित्सक डॉ. विलियम ओस्लर ने अपनी पुस्तक प्रिंसिपल्स एंड प्रेक्टिसेज ऑफ मेडिसिन में समझाया है कि मरीज एक केस नहीं अपितु जीवंत व्यक्ति है और उसके साथ प्रेमपूर्ण संबंध रखना चाहिए। डॉ. ओस्लर निमोनिया से पीडि़त एक ऐसी बालिका का इलाज कर रहे थे, जिसकी मृत्यु सुनिश्चित थी। उस बालिका से वे रोज मिलने जाते और उसे एक गुलाब का फूल देते। अगले दिन दूसरा गुलाब देते हुए समझाते कि जिस प्रकार गुलाब एक दिन बाद कुम्हला जाता है उसी तरह मनुष्य कभी भी कुम्हला सकता है। इस परवाह रखने वाले रवैए से डॉ. ओस्लर ने उस बच्ची और उसके परिजनों का दु:ख कम किया। डॉ. ओस्लर कहते थे कि रोग के वैज्ञानिक विश्लेषण और इलाज के साथ ही रोगी की पीड़ा को समझकर उसकी परवाह करना धर्म है।
परवाह या कंसर्न बहुत छोटा शब्द है, लेकिन यह दिखाना कि आपको किसी की परवाह है। बहुत बड़ा जेस्चर कहलाता है। आपको सिर्फ परवाह करनी ही नहीं अपितु उस परवाह को जताना भी आना चाहिए। बीमार की तबियत पूछना, रोगी को उस रोग के मिट जाने का दिलासा देना, किसी शोकाकुल परिवार से नियमित अंतराल पर मिलते रहना आदि परवाह जताने के पल हैं। अहंकार के चलते जब व्यक्ति किसी की परवाह नहीं करता तो उसे भी रिटर्न में यही मिलता है। वह अकेला रह जाता है। प्रेम, परवाह और सामने वाले की पीड़ा समझना ही मनुष्यता है। संबधों को सुधारने और परवाह करने से जीवन संवरता है।
( डॉ. गौरव बिस्सा )