Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

पश्चिम का ढलता सूरज: शक्ति-संतुलन के नए युग की आहट

नृपेन्द्र अभिषेक नृप

4 min read

जयपुर

image

Neeru Yadav

Sep 12, 2025

समय की धारा अनवरत गति से बहती है और इस बहाव में कभी कोई शाश्वत नहीं रहता। यह ध्रुव सत्य है कि जो कभी महाशक्ति रहे हों, वे भी इतिहास की करवटों में धूल-धूसरित होकर समय की गहराइयों में गुम हो गए। ग्रीस, रोम, मौर्य, गुप्त या मुगल साम्राज्य- सभी की शौर्यगाथा आज इतिहास की पुस्तकों में ही कैद हैं। आज जब यह प्रश्न उठता है कि क्या पश्चिम के दिन सचमुच ढलान की ओर हैं, तो यह केवल राजनीतिक या आर्थिक विश्लेषण का विषय नहीं रह जाता, बल्कि यह एक ऐतिहासिक विवेचन और दार्शनिक मंथन का भी आयाम बन जाता है।
पश्चिम, विशेषकर अमरीका और यूरोप, पिछले चार-पांच शताब्दियों से वैश्विक प्रभुत्व के केंद्र में रहे हैं। उपनिवेशवाद की भयावह लकीरों ने जिस प्रकार एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका की आत्मा को कुचला। उसने पश्चिमी देशों को अकूत धन, संसाधन और सामरिक शक्ति प्रदान की। ब्रिटेन,फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल और बाद में अमरीका ने अपने सैन्य और औद्योगिक सामथ्र्य से विश्व के अधिकांश हिस्सों पर आधिपत्य स्थापित किया। किंतु क्या वह युग अब समाप्ति की ओर बढ़ रहा है?
आज अमरीका, जो स्वयं को विश्व का प्रहरी और ‘लोकतंत्र का रक्षक’ कहता रहा है, आंतरिक और बाह्य दोनों ही स्तरों पर अनेक चुनौतियों से जूझ रहा है। उसकी अर्थव्यवस्था अपार उत्पादन शक्ति के बावजूद चीन के सामने पिछड़ती दिखाई दे रही है। बीते दो दशकों में चीन ने जिस तीव्र गति से औद्योगिक विकास किया है, उसने अमरीका के वर्चस्व को सीधी चुनौती दी है। चीन की बेल्ट एंड रोड पहल से लेकर उसके तकनीकी नवाचारों तक, हर क्षेत्र में वह विश्व की नई धुरी बनता जा रहा है।
यूरोप की स्थिति और भी विचित्र है। यूरोप के साम्राज्यवादी देश, जिन्होंने कभी भारत, अफ्रीका और अरब को अपना गुलाम बनाया था, आज स्वयं अमरीकी संरक्षण के बिना अपने अस्तित्व को सुरक्षित नहीं मानते। ब्रेक्जिट के बाद यूरोप की आर्थिक एकता में दरार पड़ी और रूस-यूक्रेन युद्ध ने यूरोप की निर्बलता को और उजागर कर दिया। यूरोप न तो रूस का प्रतिरोध कर पा रहा है, न ही अमरीका से स्वतंत्र होकर अपनी राह चुन पा रहा है। ऐसे में क्या हम मान लें कि पश्चिम का प्रभुत्व ढलान की ओर है?
सवाल यह भी उठता है कि पश्चिमी शक्ति-संतुलन के सामने भारत और एशियाई देश कहां खड़े हैं। एक समय था जब भारत स्वयं ब्रिटेन की दासता में जकड़ा हुआ था, किंतु आज वही भारत पश्चिम के सामने मजबूती से खड़ा है। अमरीका और यूरोप भारत को अपने सामरिक गठजोड़ों में शामिल करने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं, क्योंकि उन्हें भली-भांति ज्ञात है कि एशिया का भविष्य भारत और चीन के हाथों में निहित है। परंतु भारत की नीति संतुलित है- वह रूस, अमरीका और यूरोप तीनों से अपने संबंध बनाए रखते हुए स्वतंत्र विदेश नीति की धारा को साधने में विश्वास रखता है।
इतिहास गवाह है कि जब भी किसी शक्ति का प्रभुत्व चरम पर पहुंचा। उसी समय उसके पतन के बीज भी अंकुरित हो गए। ब्रिटेन ने सैकड़ों वर्षों तक 56 देशों पर शासन किया, किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उसका साम्राज्य सिकुडक़र एक छोटे से द्वीप तक सीमित हो गया। रोम का पतन भी वैभव के शिखर के बाद ही हुआ। आज अमरीका जिस प्रकार अनेक मोर्चों पर उलझा हुआ है- आर्थिक संकट, आंतरिक असमानता, नस्ली तनाव, और बाहरी देशों में अनावश्यक हस्तक्षेप- वह इस सिद्धांत की पुष्टि करता है कि वक्त हर शक्ति को ठोकर देता है।
एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि पश्चिम का सांस्कृतिक प्रभुत्व भी अब कमजोर पडऩे लगा है। कभी पश्चिमी मूल्य- लोकतंत्र, मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पूरी दुनिया के लिए आदर्श माने जाते थे, किंतु हाल के वर्षों में पश्चिमी देशों की दोहरी नीतियों ने इस आदर्श को धूमिल कर दिया। इराक, अफगानिस्तान, सीरिया और लीबिया में लोकतंत्र के नाम पर जो विनाश किया गया, उसने पश्चिमी सभ्यता के नैतिक दावे को संदेहास्पद बना दिया। इसके विपरीत, एशिया और अफ्रीका के देश अपनी सांस्कृतिक धरोहर और स्वायत्त पहचान को लेकर अधिक सजग हुए हैं।
यह भी सत्य है कि अमरीका और यूरोप अब भी तकनीकी, वैज्ञानिक और सैन्य शक्ति में अग्रणी है। नासा की अंतरिक्ष परियोजनाएं, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, ऐप्पल जैसी वैश्विक कंपनियां और शक्तिशाली नाटो संगठन अब भी उनकी ताकत को स्थापित करते हैं। किंतु यह ताकत अब निर्विवाद नहीं रही। चीन का हुआवेई, भारत का इसरो और रूस की ऊर्जा शक्ति जैसी नई चुनौतियां इस वर्चस्व को हिलाकर रख रही हैं।
भविष्य का सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि क्या विश्व बहुध्रुवीय युग में प्रवेश कर चुका है? यदि हां, तो पश्चिम का एकध्रुवीय साम्राज्य सचमुच समाप्त हो रहा है। यह यथार्थ है कि अमरीका और यूरोप अब भी प्रभावशाली रहेंगे, किंतु वे अकेले विश्व की दिशा तय करने की स्थिति में नहीं रहेंगे। भारत, चीन, रूस, ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका जैसे देश मिलकर वैश्विक मंच पर नई ध्रुवीयता का निर्माण कर रहे हैं।
भारत की भूमिका यहां विशेष महत्त्व रखती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राओं और कूटनीतिक पहल ने भारत को वैश्विक राजनीति के केंद्र में ला खड़ा किया है। आज अमरीका हो या रूस, यूरोप हो या जापान- सभी भारत को अपने साथ जोडऩे को आतुर हैं। इसका अर्थ है कि शक्ति का संतुलन अब पश्चिम से हटकर पूर्व और दक्षिण की ओर स्थानांतरित हो रहा है।
हालांकि यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि पश्चिम के दिन पूरी तरह लद चुके हैं। इतिहास हमें यह भी सिखाता है कि शक्तियां बार-बार स्वयं को पुनर्जीवित करती हैं। हो सकता है कि अमरीका और यूरोप नई रणनीतियों, तकनीकी नवाचारों और सामरिक गठबंधनों के माध्यम से पुन: अपना प्रभाव स्थापित करें। किंतु यह भी उतना ही सत्य है कि जिस प्रकार एकाधिकार का युग समाप्त हो चुका है, उसी प्रकार अब कोई भी शक्ति दुनिया पर अकेले अपना आधिपत्य नहीं जमा सकेगी।
इस संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वैश्विक राजनीति अब साझेदारी और सहभागिता की ओर बढ़ रही है। यदि अमरीका और यूरोप समय रहते अपनी नीतियों को बदल लें, साम्राज्यवादी प्रवृत्ति छोडक़र साझेदारी का मार्ग चुनें, तो वे भविष्य में भी प्रभावी रह सकते हैं। अन्यथा इतिहास उन्हें भी उसी तरह विलीन कर देगा जैसे उसने ग्रीस, रोम और ब्रिटेन को विलीन किया।
वास्तव में पश्चिम के दिन लद गए हैं या नहीं, यह प्रश्न समय के गर्भ में है। परंतु इतना निश्चित है कि पश्चिम का एकछत्र साम्राज्य अब टूट चुका है। दुनिया बहुध्रुवीय हो रही है, जहां एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका की आवाज भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण होगी जितनी अमरीका और यूरोप की। यह बदलाव केवल राजनीतिक नहीं है, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक धरातल पर भी हो रहा है। इतिहास की गति यही कहती है कि कोई भी शक्ति स्थायी नहीं होती। पश्चिम यदि स्वयं को समय की नब्ज के अनुरूप ढाल ले तो उसका प्रभाव बरकरार रह सकता है, अन्यथा समय की धूल में वह भी गुम हो जाएगा। यही समय का न्याय और इतिहास का शाश्वत सत्य है।