
सत्ता-केंद्रित राजनीति में चुनावी सफलता को निर्णायक कसौटी मान लिए जाने पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए, लेकिन सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस का संकट उससे कहीं गहरा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में 44 सीटों पर सिमटने के ऐतिहासिक शर्मनाक प्रदर्शन के बाद कांग्रेस की सीटें बढ़ी हैं। 2019 में 52 तो 2024 में 99 हो गईं, पर वैचारिक दिशाहीनता से उपजे राजनीतिक पहचान के संकट से कांग्रेस उबरती नहीं दिखती। हर चुनाव में नई रणनीति में बुराई नहीं, लेकिन वैचारिक निरंतरता तो दिखनी चाहिए।
सहयोगियों और मुद्दों के चयन में कांग्रेस का वैचारिक भटकाव साफ दिखता है। सत्तारूढ़ तो कांग्रेस 2004 से 2014 तक भी रही, लेकिन ऐतिहासिक पराभव का कारण बने राजनीतिक पहचान के संकट की शुरुआत दशकों पहले हो गई थी। कांग्रेस के चुनावी दिग्भ्रम का सबसे बड़ा उदाहरण शाहबानो केस में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला पलटने के लिए कानून बदलना और अयोध्या में राम मंदिर का ताला खुलवाना माना जा सकता है। दोनों काम राजीव गांधी के प्रधानमंत्रीत्वकाल में हुए।
बेशक 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू कर भारत के संविधान और लोकतंत्र पर आघात से कांग्रेस में जन विश्वास को हिला चुकी थीं, लेकिन जनता पार्टी नेताओं की सत्तालोलुपता से खफा मतदाताओं ने ढाई साल में ही उन्हें माफ कर दिया। वोट बैंक में बिना बड़े क्षरण के कांग्रेस 1980 में सत्ता में लौट आई, लेकिन राजीव गांधी के प्रधानमंत्रीत्वकाल में बहुसंख्यक हिंदुओं और अल्पसंख्यक मुसलमानों, दोनों को खुश करने की वायदों ने कांग्रेस की विरासत में मिली धर्मनिरपेक्ष छवि पर भारी पड़ी। भाजपा द्वारा लगाए गए अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोप से कांग्रेस नहीं उबर पाई। चुनाव प्रचार के बीच राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति से 1991 में भी कांग्रेस इसी तरह सरकार बनाने में सफल रही, लेकिन उसका पराभव और भाजपा का उदय शुरू हो चुका था। कांग्रेस भी इनार नहीं रही। 1990 में मंडल-मंडल के बीच तल्ख राजनीतिक ध्रुवीकरण के दोहरे झटके से वह संभल ही नहीं पाई।
भी व्यापक स्वीकृति वाली कांग्रेस के समक्ष यक्ष प्रश्न यह है कि आखिर वह किस वर्ग की पार्टी है? खासकर उत्तर और पश्चिम भारत में भाजपा बहुसंख्यक हिंदुओं की पहली पसंद बन गई है। बेशक उत्तर प्रदेश-बिहार जैसे राज्यों में मंडलवादी ताकतें अभी ताल ठोंक रही हैं। तमिलनाडु की सत्ता राजनीति दशकों से द्रमुक-अन्नाद्रमुक के बीच बंटी है। अपने सबसे बड़े गढ़ पश्चिम बंगाल से वामपंथी सत्ता साढ़े तीन दशकों बाद उखड़ी तो अब वहां कांग्रेस की बागी ममता बनर्जी का वर्चस्व है। केरल की राजनीति मुख्यत: एलडीएफ तथा कांग्रेसनीत यूडीएफ के बीच दोध्रुवीय है। भाजपा ने पूर्वोत्तर राज्यों में भी अपना विस्तार कर लिया। इस राजनीतिक उथल-पुथल में कांग्रेस अप्रासंगिक दल बनकर रह गई। कांग्रेस संतोष कर सकती है कि भाजपा से कर्नाटका में सत्ता छीनने में सफल रही। आंध्र प्रदेश से अलग होकर बने तेलंगाना के मतदाताओं ने भी केसीआर को तीसरी बार मुख्यमंत्री बनाने के बजाय कांग्रेस को सत्ता सौंप दी। केरल में भी सत्ता-बदल में कांग्रेस की लॉटरी खुल जाती है, पर शेष दक्षिण में वह अकेले दम चुनाव लड़ने की हालत में भी नहीं।
उत्तर प्रदेश-बिहार जैसे बड़े राज्यों में भी यही हाल है। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस भाजपा की मजबूत प्रतिद्वंद्वी रही, पर पिछले चुनावों में हाशिये पर चली गई। 2014 से वह दिल्ली की सत्ता से बाहर है तो 2014 से हरियाणा भी लगातार हाथ से फिसल रहा है। 2022 में आप के पास चला गया पंजाब आसानी से लौटने वाला नहीं। सांत्वना पुरस्कार के रूप में हिमाचल प्रदेश की सत्ता उसके पास है। केंद्र के बाद राज्यों की सत्ता भी हाथ से फिसलने से कांग्रेस के लिए वैचारिक और राजनीतिक पहचान का संकट गहराता जा रहा है, पर वह आत्मविश्लेषण का साहस नहीं जुटा पा रही। फिर भी ईवीएम पर ठीकरा फोड़ा जाता है तो भी ‘वोट चोरी’ को मुद्दा बनाया जाता है। चुनावी मुद्दा भी बदल जाता है। लोकसभा चुनाव में संविधान और आरक्षण खतरे में था, उससे बाद से लोकतंत्र खतरे में है।
अखिलेश की सपा और लालू-तेजस्वी का राजद, कांग्रेस से छीने गए ओबीसी-अल्पसंख्यक जनाधार पर ही खड़े हैं। मंडल आयोग की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाले रखने वाली कांग्रेस के नेता राहुल जब सामाजिक न्याय का संकल्प लेते हैं तो सपा और राजद सचेत हो जाते हैं। वे राहुल को विपक्ष का ‘प्रधानमंत्री-चेहरा’ भले मान लें, पर कांग्रेस को राज्य में पैर जमाने लायक सीटें नहीं देते। किसी भी निर्वाचित सदन में शून्य सीट वाली वीआईपी के नेता मुकेश सहनी को उप मुख्यमंत्री चेहरा घोषित कर दिया गया, लेकिन बिहार विधानसभा में 19 विधायकों वाली कांग्रेस को भाव नहीं दिया। कांग्रेस और आप के बीच दलगत हितों के टकराव से ही दिल्ली में भाजपा की सत्ता का मार्ग प्रशस्त हुआ। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी कांग्रेस को पैर नहीं रखने दे रही हैं। आश्चर्यजनक रूप से कांग्रेस की संगठनात्मक मजबूती प्राथमिकता में नजर नहीं आती, वरना हरियाणा में पिछले विधायिका दल नेता को ही पुनः चुनने में साल नहीं लग जाता।
उदयपुर चिंतन शिविर में कांग्रेस का ख्याल परने की बातें बहुत हुईं, पर हुआ कुछ नहीं। थनी-रानी के अंतर और वैचारिक भटकाव से उबरे बिना कांग्रेस का भविष्य नहीं। जवाहर लाल नेहरू ने भारत की खोज पुस्तक लिखी थी, क्या राहुल गांधी वर्तमान भारतीय राजनीति में कांग्रेस की प्रासंगिकता खोज पाएंगे?
Published on:
05 Nov 2025 03:41 pm
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