हाल में चीन के तियानजिन में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाक़ात को द्विपक्षीय संबंधों में एक प्रतीकात्मक पिघलाव और अमरीका की टैरिफ धौंस के विरुद्ध संयुक्त रुख के रूप में देखा गया। चूंकि यह बैठक द्विपक्षीय, बहुपक्षीय और रणनीतिक नैरेटिव पर असर डालने वाली थी, इसलिए भारत, चीन और रूस के अलावा अमरीकी रणनीतिकारों की भी इस पर गहरी नज़र थी। दोनों नेताओं ने एक स्वर में कहा कि भारत और चीन को प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि भागीदार बनकर काम करना चाहिए। शी ने हाथी और ड्रैगन के साथ-साथ चलने की उपमा देकर एकता का आह्वान किया। बैठक के वैश्विक रणनीतिक प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दिखाई दिए।
किंतु इस कूटनीतिक परिदृश्य के परे, प्रश्न यह है कि क्या यह पहल वास्तव में कोई ठोस परिवर्तन लेकर आएगी अथवा मात्र प्रतीकात्मक सुलह बनकर रह जाएगी? शांति और सहयोग की सावधानीपूर्वक गढ़ी गई प्रतिज्ञाओं के पीछे भारत-चीन संबंधों की दिशा अब भी अनिश्चितताओं से भरी हुई है। दशकों से सीमा विवाद और कई झड़पों ने इस रिश्ते को क्षेत्रीय संघर्षों से रंग दिया है। सीमा-वार्ता द्विपक्षीय संबंधों का केंद्रीय स्तंभ रही है, लेकिन डोकलाम और गलवान जैसी झड़पों ने इसे 1962 के बाद से सबसे ख़राब दौर में धकेल दिया। गलवान के बाद का समय गहरे रणनीतिक अविश्वास की कड़वी याद दिलाता है। नए कूटनीतिक प्रयासों के बावजूद वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सैनिक तैनाती और भू-सीमा विवाद अब भी अनसुलझे हैं, जिससे “स्थायी शांति” की धारणा पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। कूटनीति की सबसे कठिन चुनौती बातचीत शुरू करने की नहीं, बल्कि उसे निभाने की होती है।
विशेषज्ञों का मानना है कि मौजूदा सुलह और सहयोग की पहल द्विपक्षीय गर्मजोशी की बजाय बाहरी दबावों से अधिक प्रेरित है। इस रणनीतिक समीकरण और परिस्थितियों ने संवाद के नए आयाम गढ़े हैं। बीजिंग आर्थिक चुनौतियों और वाशिंगटन के साथ लंबी तनातनी का सामना कर रहा है, जबकि नई दिल्ली को अमरीकी बाजार में अपने निर्यात पर बढ़ती पाबंदियों से निराशा है। ऐसे में व्यापारिक टैरिफ दोनों देशों के लिए साझा चिंता है। दोनों के बीच यह मेलजोल महत्त्वपूर्ण है और इसमें “ट्रंप फैक्टर” निर्णायक बन गया है, क्योंकि ट्रंप के पहले कार्यकाल में उनके साथ तालमेल बिठाने में दोनों देशों को खट्टे-मीठे अनुभव मिले। ट्रंप के वाइट हाउस में पद संभालने के केवल छह महीने के भीतर ही भारत और चीन के बीच एक सतर्क सामरिक समीकरण दिखाई देने लगा, जो एशियाई यथार्थवाद की मिसाल था।
फिर भी, इस शिखर मुलाकात को न तो संरचनात्मक और न ही दीर्घकालिक रणनीतिक कहा जा सकता है। भारत और चीन के बीच विवादित सीमा ही नहीं, बल्कि बीजिंग के पाकिस्तान से गहरे रिश्ते और असंतुलित व्यापार घाटा भी गंभीर मतभेदों का कारण है। यदि चीन वास्तव में भारत के रुख़ को लेकर प्रतिबद्ध और सहयोगी होता तो वह एससीओ या ब्रिक्स जैसे मंचों पर भारत के पक्ष में अधिक सक्रिय रुख़ अपनाता। यही कारण है कि ये मुद्दे क्षणिक कूटनीतिक प्रयासों से कहीं अधिक समय तक बने रहने वाले हैं।
ऐसे समय में जब सीमा संघर्ष बेहद तीखे हैं और भारत में तिब्बतियों की मौजूदगी चीन की गहरी चिंता का विषय बनी हुई है, मोदी-शी मुलाक़ात को एक अस्थायी और संक्रमणकालीन कदम माना जा रहा है। दोनों देशों के लिए वैश्विक समीकरणों में बदलाव के चलते तनाव नियंत्रित करने की प्रबल ज़रूरत है, लेकिन उनके रिश्ते की दरारें जस की तस हैं। फिलहाल जो दिख रहा है, वह किसी ठोस प्रगति से अधिक एक सामरिक समायोजन है—बाहरी दबावों से निर्मित एक असहज युद्धविराम। फिर भी, इसने अमेरिका को स्पष्ट संकेत दिया है कि भारत अपनी स्वतंत्र नीतियां जारी रखेगा।
प्रश्न अब भी बरकरार है कि इन दोनों एशियाई महाशक्तियों के लिए आगे का रास्ता क्या है? ग्लोबल साउथ की प्रमुख आवाजें होने के नाते भारत और चीन को अपने रिश्तों में बिछी बुनियादी खाइयों को पाटना ही होगा, तभी स्थायी—यदि और मज़बूत नहीं तो कम से कम स्थिर—संबंध संभव हो पाएंगे। हाल की घटनाएं बताती हैं कि बीजिंग भारत के साथ घनिष्ठ संबंध बनाने के लिए अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय रुख़ अपना रहा है। एक महत्वपूर्ण क्षण तियानजिन में प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति के करीबी सहयोगी तथा पोलित ब्यूरो स्थायी समिति के सदस्य काई शी की मुलाक़ात थी। इस मुलाक़ात ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की इस मंशा का संकेत दिया कि वह भारत को यदि सर्वोच्च प्राथमिकता न भी दे, तो भी एक अहम साझेदार ज़रूर मान रही है।
लेकिन इन इरादों के पीछे ठोस कदम नहीं होंगे तो यह सब महज़ बयानबाज़ी बनकर रह जाएगा। आगे बढ़ते हुए, भारत और चीन के बीच सीमा-वार्ताओं को अधिक परिणामोन्मुख और गहन होना पड़ेगा तभी द्विपक्षीय संबंध मज़बूत हो पाएंगे। लंबे समय तक दोनों देशों ने विवादास्पद मुद्दों को अलग खानों में रखकर आगे बढ़ने की मौन नीति अपनाई थी, किंतु 2020 में पूर्वी लद्दाख की झड़पों ने उस नीति की वास्तविकता को उजागर कर दिया और रिश्तों में दरारें गहरी कर दीं। उसके बाद केवल पिछले वर्ष कज़ान में ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान मोदी-शी मुलाक़ात से कुछ हद तक रिश्तों पर जमी बर्फ पिघली।
अब समय ही बताएगा कि भारत चीन के‘खुलेपन’पर अधिक भरोसा करेगा या फिर अमेरिका की उस नीति पर ध्यान देगा, जिसे कई लोग उपेक्षापूर्ण मानते हैं। यह भी संभव है कि अमेरिका अपनी रणनीतियों का पुनर्मूल्यांकन कर भारत के साथ संबंधों को नई सामरिक दृष्टि से मज़बूत बनाने का प्रयास करे।
Updated on:
08 Sept 2025 06:56 pm
Published on:
08 Sept 2025 06:52 pm
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