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हिंदी सिनेमा को शरतचन्द्र तो चाहिए, पथ के दावेदार नहीं

विनोद अनुपम

3 min read

जयपुर

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Neeru Yadav

Sep 07, 2025

हिन्दी में सबसे अधिक फिल्में शरतचंद्र के साहित्य पर ही बनी हैं, लेकिन अधिकांश में सिर्फ बाह्य व्यवहार को ही अभिव्यक्ति मिली है, चरित्रों के अन्दर प्रवेश करने की या तो फिल्मकारों ने कोशिश ही नहीं की या फिर शायद सत्यजीत रे की तरह बेहतर साहित्यिक कृति के फिल्मांकन का धैर्य ही उनमें नहीं था या फिर ईमानदारी! आश्चर्य नहीं कि पूर्णता की तलाश में शरतचंद्र की एक ही कृति को कई-कई बार फिल्मांकित करने की कोशिश होती रही, यह कोशिश अब भी जारी है।
‘परिणीता’ पर पहली फिल्म अशोक कुमार ने 1953 में विमल राय के निर्देशन में बनाई थी। इस फिल्म में मीना कुमारी ने नायिका की भूमिका निभाई थी। बीस साल बाद पुन: ‘परिणीता’ को सेल्युलाइड पर उतारने की योजना बनी। ‘संकोच’ नाम से बनी इस फिल्म का निर्देशन अनिल गांगुली ने किया था। तीसरी ‘परिणीता’ प्रदीप सरकार के निर्देशन में आई, वह भी ठीक बीस साल बाद। निश्चय ही अन्तिम कोशिश नहीं हो सकती क्योंकि शरत् साहित्य की समझ रखने वाले के लिए ‘परिणीता’ को साकार देखना अभी शेष है। शरत् साहित्य पर केन्द्रित फिल्मों पर विचार करते हुए बार-बार यह सवाल कचोटता है कि फिल्मांकन के लिए आखिरकार क्यों शरत् की नजरों में भी जो अतिसामान्य कृति थी, उसी का चुनाव किया जाता रहा। विभिन्न भाषाओं में ‘देवदास’ पर ही ग्यारह बार फिल्म बनती है, ‘परिणीता’ पर तीन बार, ‘छोटा भाई’ पर दो बार लेकिन आश्चर्य कि ‘पथ के दावेदार ’ या ‘शेष प्रश्न’ जैसी कृति, जिसमें शरतचंद्र की वैचारिकता मुखर दिखती है, की ओर कोई फिल्मकार निगाह डालने की जहमत नहीं उठाता। वास्तव में ऐसा लगता है कि फिल्मकारों के लिए शरतचन्द्र अपनी पलायनवादी प्रवृत्ति को ढकने का आवरण भर थे। शरतचन्द्र ने ‘देवदास’ को कभी आदर्श नहीं माना था। उनका कहना था, ‘देवदास’ में धैर्य और परिश्रम का अभाव है। वह प्रारब्ध प्रेरित व्यक्ति है। देवदास को परदे पर एक बार साकार करने वाले दिलीप कुमार कहते हैं, देवदास का चरित्र पूर्णतया परम्परावादी है। उसमें विद्रोह करने का साहस नहीं है। वह पार्वती के असीम रूप से प्रेम करता है, फिर भी वह उसे और खुद को प्रताडि़त करता है, क्योंकि वह स्वयं को सुनिश्चित करने के लिए कुछ भी नहीं करना चाहता और न ही प्रचलित सामाजिक व्यवस्था के प्रति कुछ कर सकता है।
ऐसे में शरतचन्द्र की अपने दौर में विवादास्पद रही कृति ‘पथेर दाबी’, जो हिंदी में ‘पथ के दावेदार’ के नाम से बहुपठित और बहुप्रशंसित रही, पर बांग्ला में फिल्म के निर्माण की घोषणा संतोष देती है। इस उपन्यास के शताब्दी वर्ष पर फिल्मकार सृजीत मुखर्जी ने अपनी अगली फिल्म ‘एम्परर बनाम शरत चन्द्र’ की घोषणा की, जो मई 2026 में रिलीज होगी। शरतचन्द्र का यह उपन्यास अगस्त 1926 में प्रकाशित हुआ था। स्वाधीनता संग्राम के उस दौर में इस उपन्यास की वैचारिकता से लोग इस तरह प्रभावित हुए कि प्रकाशन के एक सप्ताह के अंदर सभी प्रतियां बिक गईं, लेकिन इसी लोकप्रियता ने ब्रिटिश सरकार के कान भी खड़े कर दिए और इसे देशद्रोही मानकर प्रतिबंधित कर दिया गया। हालांकि शरतचन्द्र की मृत्यु के एक वर्ष बाद 1939 में यह प्रतिबंध हटा लिया गया। उल्लेखनीय है कि 1977 में भी निर्देशक पीजुष बोस ने ‘पथेर दाबी’ पर आधारित फिल्म ‘सब्यसाची’ बनाई थी, जिसमें अभिनेता उत्तम कुमार मुख्य भूमिका में थे। सब्यसाची के चरित्र में उस दौर के कई क्रांतिकारी नेताओं, खासकर सुभाषचंद्र बोस की झलक स्पष्ट देखी जा सकती है। सब्यसाची कहता है, ‘मुझे कल्याण की कामना नहीं है, कामना है केवल स्वाधीनता की। भारत की स्वाधीनता की आवश्यकता के लिए नए सत्य की सृष्टि करना ही भारतवासियों के लिए सबसे बड़ा सत्य है।’ हिंदी सिनेमा ने जिन्हें ‘देवदास’ के लेखक के रूप में ही सीमित रखा है, उस शरतचन्द्र के साहस की कल्पना कर सकते हैं कि यह वे 1926 में लिख रहे थे, जब ‘भारत छोडो आंदोलन’ भी दूर था। साथ ही ‘सब्यसाची’ के समय पर गौर करें तो बांग्ला सिनेमा के उस साहस को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते जो आपातकाल के दौर में भी ऐसी फिल्मों के साथ सत्ता को चुनौती देने की जवाबदेही निभा रही थी।
शरतचन्द्र ने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में भी सहभागिता निभाई थी और बाद में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सशस्त्र संघर्ष का भी समर्थन किया। इस उपन्यास में वे उस दौर में चल रहे विमर्शों को समेटने की कोशिश करते दिखते हैं। इसमें धर्म, संस्कार, परंपरा सब कुछ ध्वंस कर आगे बढऩे की भी बात है तो स्नेह, करुणा, और धार्मिक विश्वास की भी। नायक कहता है, पराधीन देश में शासक और शासितों की नैतिक बुद्धि एक हो जाती है, तब देश के लिए उससे बड़ा दुर्भाग्य और कुछ नहीं।
अब जब हिंदी सिनेमा नई कहानियों, नए विमर्श के लिए तैयार दिख रहा,’पथेर दाबी’ जैसी कहानियों के प्रति हिंदी सिनेमा की निरपेक्षता चिंतित करती है। वास्तव में हिंदी सिनेमा को कभी विमर्श में रुचि नहीं दिखती, वह निर्णय पर पहुंच दर्शकों को सुकून देने में यकीन रखता है। जाहिर है उसे शरत तो प्रिय हैं, लेकिन बस ‘देवदास’ के लिए।