हर माता-पिता को, खासकर जिनके दो या उससे अधिक बच्चे हैं, यह बात जरूर सुननी चाहिए। आपका पहला बच्चा न तो आपका सहायक है, न आपका पालन-पोषण में भागीदार और न ही कोई उदाहरण गढऩे वाली मशीन। वह एक बच्चा है। ठीक वैसे ही जैसे आपका दूसरा बच्चा और उसे भी पूरा अधिकार है कि वह खुद को बच्चा महसूस कर सके।
लेकिन मैं समझ सकती हूं। जब दूसरा बच्चा आता है तो हमारे भीतर कुछ बदल जाता है। हम पहले से अधिक आत्मविश्वासी हो जाते हैं, थोड़े कम फिक्रमंद। हम इस बार चीजें बेहतर करना चाहते हैं। छोटे बच्चे को हम खुद के एक कोमल रूप से पालना चाहते हैं और यहीं से हम अपने पहले बच्चे से यह उम्मीद करने लगते हैं कि वह जल्दी बड़ा हो जाए।
हम जरूर जुबान से यह नहीं कहते लेकिन हमारे रोजमर्रा के व्यवहार में ये संदेश साफ झलकते ह- ‘तुम बड़े हो, उसे खिलौना दे दो।’ ‘तुम बड़े हो, तुम्हें समझना चाहिए।’ या फिर ‘रो मत, तुम अब बड़े हो गए हो।’ और इसी तरह धीरे-धीरे हमारा पहला बच्चा, बच्चापन छोड़ देता है।
रीना जयपुर की एक मां हैं। उनके बेटे आरव की उम्र चार साल थी, जब उसकी छोटी बहन दीया का जन्म हुआ। शुरुआत में वह बहुत खुश था। दीया को दूध पिलाने में मदद करना चाहता था। उसे झुलाना चाहता था। अपने खिलौने तक बांटने को तैयार था।
पर धीरे-धीरे रीना ने देखा कि आरव चुपचाप रहने लगा। उसने मदद मांगना बंद कर दिया। अकेले खेलने लगा। फिर एक दिन उसने कहा, ‘मम्मा, मुझे लगता है कि आप दीया से ज्यादा प्यार करती हो।’ यह बात सुनकर रीना का दिल टूट गया।
उन्होंने कभी नहीं चाहा था कि आरव को कम प्यार महसूस हो। लेकिन हर बार जब वह रोया, उन्होंने कहा-‘बच्चों जैसी हरकत मत करो।’ जब उसने गलती की, उन्होंने कहा-‘तुम बड़े हो, जिम्मेदारी से पेश आओ।’ और दोनों बच्चों को अच्छी परवरिश देने की कोशिश में वह भूल गईं कि उनका पहला बच्चा अभी सिर्फ चार साल का था। उसे अब भी गले लगाने की जरूरत थी। उसे धैर्य की जरूरत थी। उसे यह सुनने की जरूरत थी-‘तुम जैसे हो,वैसे ही काफी हो।’
यह केवल अनुभव नहीं है, बल्कि शोध भी इसकी पुष्टि करते हैं। चाइल्ड डेवलपमेंट जर्नल और जर्नल ऑफ रिसर्च इन पर्सनालिटी में प्रकाशित अध्ययनों के अनुसार पहले बच्चों में जिम्मेदारी की भावना तो मजबूत होती है, पर उनके भीतर विफलता का डर और चिंता भी अधिक पाई जाती है। वे अक्सर पूर्णतावादी बन जाते हैं क्योंकि उनसे शुरुआत से ही यह अपेक्षा की जाती है कि वे नेतृत्व करें, सफल हों और कभी न चूकें। दूसरी ओर, छोटे भाई-बहनों को ज्यादा समर्थन, ढील और भावनात्मक अभिव्यक्ति की छूट मिलती है।
यह इस वजह से नहीं होता कि माता-पिता किसी एक को ज़्यादा प्यार करते हैं, बल्कि इसलिए कि हर बच्चे के साथ माता-पिता खुद बदलते हैं। वे और अधिक समझदार बनते हैं, अधिक क्षमाशील होते हैं। पर इसी प्रक्रिया में वे कभी-कभी यह भूल जाते हैं कि पहले बच्चे को अब भी पहले की तरह जरूरतें हैं।
हम उन्हें बोझ देना नहीं चाहते, लेकिन अनजाने में दे बैठते हैं। हम उनसे उम्मीद करते हैं कि वे छोटे भाई-बहनों की देखभाल करें। उनसे आदर्श बनने की उम्मीद पालते हैं। अपेक्षा करते हैं कि वे हमेशा समझदारी से पेश आएं, समझौता करें, बलिदान दें।
पर किसी बच्चे को अपना बचपन खोकर, दूसरे का बचपन बचाने की कीमत नहीं चुकानी चाहिए। जब हम पहले बच्चे पर जल्दी बड़ा होने का दबाव डालते हैं, हम उससे उसकी सबसे कीमती चीज उसकी मासूमियत छीन लेते हैं और यह दबाव खत्म नहीं होता।
यह उनके साथ बड़े होने तक रहता है। वे वयस्क होते हैं। गलती करने से डरते हैं। बार-बार ‘सॉरी’ कहते हैं और हमेशा अपना सर्वोत्तम करने के बावजूद अपराधबोध ढोते हैं। हमें लगता है हम उन्हें जिम्मेदार बना रहे हैं। पर कई बार हम उन्हें आजाद रहना ही भूलने दे रहे होते हैं।
रुकिए। सोचिए। जब आपका पहला बच्चा रोता है, तो खुद से पूछिए, "अगर यह दूसरा बच्चा होता, तो क्या मैं यही कहती?" जब वह जिद करता है, याद रखिए वह सिर्फ इतना कह रहा है, ‘मुझे भी देखो। मुझे भी महसूस करो।’ आप अपने पहले बच्चे को सिर्फ ‘बच्चा’ होने का तोहफा दे सकते हैं।
उसे गड़बड़ करने दीजिए। गलतियां करने दीजिए। बिना शर्मिंदा किए उसे रोने दीजिए। उसे यह बताइए कि आपका प्यार उसके लिए कभी रत्ती भर भी कम नहीं हुआ। दोनों बच्चों के माता-पिता बनिए। सिर्फ एक घर में नहीं, एक ही दिल से।
आपका पहला बच्चा कोई प्रयोग नहीं है। वह आपका शिक्षक है, आपका दर्पण है, आपका उपहार है। उसी ने आपको ‘मां’ बनाया। उसे भी अपनी गति से बड़ा होने का हक है। यह कोई अपराध-बोध की बात नहीं है। यह जागरूकता की बात है। जब हम अपने प्यार को लेकर सजग हो जाते हैं, तभी हम सच में बेहतर प्रेम करना सीखते हैं।
Published on:
10 Aug 2025 06:24 pm