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शरीर ही ब्रह्माण्ड: यदा यदाहि धर्मस्य…

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-यदा यदाहि धर्मस्य…

Gulab Kothari Article शरीर ही ब्रह्माण्ड:
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्। (गीता 7.10)
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। (गीता 18.61)
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।। (गीता 4.7)
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।। (गीता 4.8)
वाह रे कृष्ण! सम्पूर्ण भूत सृष्टि का बीज है तू। क्या कोई वैज्ञानिक स्वीकार कर पाएगा कि सभी 84 लाख योनियां एक ही बीज से उत्पन्न हुई हैं। सूर्य को भी सम्पूर्ण सृष्टि का पिता कहा है। दोनों एक ही हुए? हां, गीता में कृष्ण स्वयं को अव्यय कह रहे हैं। परात्पर के साथ अव्यय, अक्षर और क्षर रूप में सूर्य बन रहा है, जो सृष्टि का प्रथम षोडशकल पुरुष है। सूर्य का अद्र्धांश अमृत सृष्टि से जुड़ा है तथा नीचे का आधा भाग मत्र्य सृष्टि से सम्बद्ध है। सूर्य ही जगत का आत्मा कहलाता है—सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च। तब प्रश्न होता है कि माता हर योनि की भिन्न क्यों? ब्रह्म तो एक ही है किन्तु उसे हर योनि के लिए अलग माता चाहिए ताकि 84 लाख योनियों का निर्माण हो सके। इसलिए हर योनि की अलग मां पैदा की जाती है। खैर! माताओं का बीज भी तो तू ही है। तू ही सबके हृदय में बैठा है। तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्-ईश्वर सृष्टि करके स्वयं उसके भीतर प्रविष्ट हो जाता है। तब कौन देव या असुर ऐसा है जिसके भीतर तू नहीं बैठा?
हमें गीता को स्वयं के भीतर लागू करके देखना होगा अन्यथा कृष्ण का यह उपदेश मात्र युद्ध क्षेत्र मंन किंकत्र्तव्यविमूढ़ अर्जुन तक सीमित हो जाएगा। इस दृष्टि से तीसरे श्लोक का मर्म क्या हुआ? जब-जब धर्म का ह्रास होता है, यह ह्रास इसी शरीर में होता है। शरीर में देव-असुर प्राण वैसे ही कार्य करते हैं, जैसे ब्रह्माण्ड में। तमस गुण व तामसिक वृत्तियों की वृद्धि ही साधुत्व का ह्रास माना जाता है। इसी से धर्म का ह्रास होता है। ऐसी स्थिति में सद्पुरुषों की रक्षा के लिए मैं (कृष्ण) भीतर चेतना को जाग्रत करता हूं। व्यक्ति के आत्मा में नए सिरे से सत्व गुण का प्रवाह होने लगेगा। आत्मा की आवाज पर अथवा क्रन्दन को सुनकर मैं तुरन्त प्रकट हो जाता हूं। जैसे द्रौपदी, प्रह्लाद, नरसी मेहता, गजेन्द्र-मोक्ष आदि कथाओं से स्पष्ट भी हो रहा है।
व्यक्ति स्वयं ही ब्रह्माण्ड है। कृष्ण का उद्घोष ही है कि आत्मा एक क्षण भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। आत्मा के चारों ओर का मायाजाल बहुत बड़ा है। कर्मों के फल हैं। त्रिगुण का पर्दा भी है शरीर, मन, बुद्धि सभी पर। अविद्या में पैदा होना ही आसुरी चक्रव्यूह का आरंभ है। समय के साथ अनेक नए आवरण चढ़ते जाते हैं—नाम, लिंग, जाति, देश आदि। आज के जीवन में ज्ञान का प्रकाश दुर्लभ है। जो स्वयं को ज्ञानी कहते हैं, उनके शरीर और ओज को देखकर भीतर का आकलन किया जाना संभव है। भीतर में जीवात्मा भी है और परमात्मा भी। परमात्मा तो द्रष्टा है। उसे पल-पल दिखाई दे रहा है- कब जीवात्मा कर्म में व्यस्त है, कब धर्म से च्युत हो रहा है अथवा किया जा रहा है। परमात्मा सदा ही तत्पर रहता है- सोता नहीं है।
जीवात्मा मनुष्य शरीर धारण करता है तब इसका सदुपयोग मुक्ति साक्षी रूप में ही सार्थक होता है। अन्य योनियों में पूर्व जन्मों का ज्ञान भी सहजता से नहीं होता। मानव देह के रहते ही मुक्ति के प्रयास आसानी से फलीभूत हो सकते हैं। अत: पूरी उम्र व्यक्ति के मन में यह चलता ही रहता है। कभी जप करता है, कभी ध्यान करता है, कभी कोई अनुष्ठान करता है। कई देवताओं को ढोकता है। अनेक गुरुओं के चक्कर में भटकता रहता है। एक ओर उसकी मुक्ति की कामना है तो दूसरी ओर अहंकार है। द्रौपदी का कष्ट क्या था- उसका अहंकार कि मैं ही दु:शासन को रोक लंूगी। अन्त में जब हार गई, तब कृष्ण को आवाज दी, रक्षा के लिए। यह अन्तिम क्रंदन ही आत्म-समर्पण है। यही धर्म और अधर्म के मध्य विजय निर्धारण का क्षण होता है- यदा यदाहि धर्मस्य… रूप में।
एक कथन प्रचलित है—''दूसरों की जय से पहले खुद को जय करें।‘’ यह खुद प्रत्येक प्राणी का मन ही है। मन के केन्द्र में कामना है। कामना बेगम की अथवा बादशाहत की? बादशाहत के आगे ही ब्रह्म है- एकोऽहं। बेगम के नीचे गुलाम और माया की गिनती है। मन बेगम को केन्द्र में रखकर सहजता के साथ आगे बढ़ता है। बेगम ही वानप्रस्थ का द्वार बनकर बादशाहत सौंपती है। वही वैराग्य का पथ बनती है। भोग को योग में बदलती है। इन्द्रिय मन को सर्वेन्द्रिय मन के द्वारा महन्मन की ओर मोडऩे का प्रयास करती है। यहां तक इन्द्रिय मन जुड़ा रहता है।
इन्द्रियां विषयों को सर्वेन्द्रिय मन तक लाती रहती हैं। अहंकार ही बुद्धि के द्वारा पुनरावृत्ति का आदेश करता है। दुबारा देखना है, और इसी वस्तु को खाना है, इस संगीत को पुन: सुनना है आदि-आदि। यही रागात्मक कामना धर्मस्य ग्लानि की ओर अग्रसर करती है। राग ही द्वेष में बदलता है। काम की परिणति ही क्रोध है। व्यक्ति का शत्रु है। क्रोध से मूढ़ता, मूढ़ता से स्मृति में भ्रम पैदा होता है। स्मृतिभ्रम ही ज्ञान (ब्रह्म के विषय) से दूर करता है। यही जीवन की अधोगति है। यही वह स्थिति है जिससे व्यक्ति स्वयं बाहर निकलने की क्षमता खो बैठता है—
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।। (गीता 3.37)
क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। (गीता 2.63)
मन ही बंध और मोक्ष का कारक है। मन की चार अवस्थाओं में से महन्मन भी नहीं जुड़ पाता। जीवन इन्द्रिय मन और सर्वेन्द्रिय मन के बीच ही डोलता रहता है। कृष्ण जिस हृदय में स्थित रहता है, प्रतिष्ठित रहता है, वह तो महन्मन से भी भीतर है। श्वोवसीयस मन कहलाता है। वही अव्यय पुरुष का (विश्व का) एकमात्र मन है। जब ब्रह्म एक है, बीज एक है तो सभी प्राणियों का मन भी एक ही है। इसी अव्यय पुरुष के कारण सृष्टि को पुरुष प्रधान कहा जाता है।
इस पुरुष के पीछे एक तो माया पड़ी रहती है—भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया (गीता १८.६१)। विविध योनियों के लाखों प्राणी और लक्ष्य सभी का एक है- अहं ब्रह्मास्मि रूप में। मानो यही मोक्ष हो। दूसरा यह कि पुरुष को सदा ढककर अंधेरे में रखती है, जहां असुरों का साम्राज्य रहता है। तीन चौथाई असुर और जैसे अकेला ब्रह्मा-विष्णु की नाभि में है। पुुरुष पर नित्य आक्रमण होते रहते हैं और साथ ही प्रारब्ध भी रहता है। चारों ओर का वातावरण भी आपसे अपने ऋण चुकाने के लिए शूल बना खड़ा होता है। पहले उसको यह समझने में ही समय लग जाएगा कि वह शरीर नहीं आत्मा है। तब जाकर तो आंखें खुलेंगी कि उसे बाहर निकलना है। बिना समझे तो मरने तक भी स्वयं का पता नहीं होता। पशुवत् शरीर को भोगकर विदा हो जाता है।
आत्मज्ञान होना ही वह निर्णायक मोड़ होता है जब आत्मा महन्मन की बाधा को पार करने के लिए छटपटाता है। तब आसुरी सम्पदाओं से उसका द्वन्द्व (देवासुर संग्राम) भयानक हो पड़ता है। व्यक्ति जितना अपना प्रयास तेज करता है, उतना ही विरोध- आक्रमण- माया की पकड़ आदि भी तेज होते जाते हैं। तब एक क्षण ऐसा आता है जब व्यक्ति समर्पण कर बैठता है। ईश्वर के आश्रित हो जाता है। वहां परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् के लक्ष्य को लेकर संभवामि युगे युगे रूप में ईश्वर अपने हाथ में परिस्थितियों को ले लेता है। ईश्वर और जीवात्मा का एकाकार हो जाता है। यदि वह भीतर न बैठा होता तो तत्क्षण कैसे पहुंच सकता है। हिरण्यकश्यप को प्राप्त इतने प्रकार के वरदान के बाद भी नृसिंह रूप में उसे अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए आना पड़ता है, आता भी है। बाहर से नहीं, भीतर से आता है।
क्रमश:
gulabkothari@epatrika.com