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राजस्थान: दिवाली पर मेहर समाज की 200 साल पुरानी परंपरा, नदी से लाते हैं गंगाजल, उल्टे तवे पर बनती है रोटी

कोटा जिले में कुंदनपुर के कांगनिया गांव में मेहर समाज दिवाली पर दो सदी से पूर्वजों का तर्पण करता है। नदी के जल से भोग और रोटियां तैयार की जाती हैं। गीत-संगीत के बीच श्रद्धांजलि दी जाती है।

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Kota Kundanpur Mehr community

नदी से जल लाती महिलाएं (फोटो- पत्रिका)

कुंदनपुर (कोटा): दिवाली जहां रोशनी, पटाखों और मिठाइयों का त्योहार है। वहीं, कुंदनपुर क्षेत्र के कांगनिया गांव का मेहर समाज इस पर्व को पूर्वजों की याद और आस्था की अनूठी परंपरा के रूप में मनाता है। लगभग दो सौ वर्षों से चली आ रही इस परंपरा में समाज के लोग पूरे विधि-विधान से अपने पूर्वजों का तर्पण करते हैं।


बता दें कि यह परंपरा मेहर समाज की आस्था, एकता और संस्कारों की जीवंत मिसाल है। दिवाली पर तर्पण की यह रस्म आज भी उतनी ही आस्था से निभाई जाती है, जितनी दो सदियों पहले निभाई जाती थी।


पूर्वजों के लिए बनता है विशेष भोग


गांव के बुजुर्ग मोतीलाल मेहरा, भंवरलाल मेहरा और राजेंद्र मेहरा बताते हैं कि दिवाली के दिन समाज के लोग उजाड़ नदी के घाट पर एकत्र होते हैं। वहां मछलियों को आटा, ज्वार और रोटियां खिलाई जाती हैं और पूर्वजों के नाम से तर्पण किया जाता है। आटे की गोलियां बनाकर नदी में प्रवाहित की जाती हैं। इसके बाद फूल, दीपक, मालाएं चढ़ाकर पूर्वजों को श्रद्धांजलि दी जाती है।


नदी के पानी से ही बनता है तर्पण का भोजन


इस परंपरा की खास बात यह है कि भोजन बनाने के लिए घर का पानी इस्तेमाल नहीं किया जाता। महिलाएं नदी से ही पानी लाती हैं और उसी से खीर-पूड़ी व भोग तैयार करती हैं। समाज की महिलाएं सजधज कर गीत गाते हुए नदी घाट पहुंचती हैं। मान्यता है कि यह जल गंगाजल समान होता है, जिससें तैयार भोग पूर्वजों को प्रसन्न करता है।


उल्टे तवे पर पकती है रोटी


भोग की रोटियां विशेष तरीके से उल्टे तवे पर बनाई जाती हैं। इसके पीछे यह मान्यता है कि इससे पूर्वजों को विशेष पुण्य प्राप्त होता है। भोजन तैयार कर सभी मिलकर पूर्वजों के नाम के निवाले निकालकर भोग लगाते हैं।


गली-नुक्कड़ पर रहती है निगरानी


महेंद्र मेहरा और विष्णु मेहरा ने बताया कि जब महिलाएं नदी से पानी लाने जाती हैं, उस समय गांव के हर गली-नुक्कड़ पर समाज के लोग और महिलाएं तैनात रहते हैं, ताकि कोई व्यक्ति रास्ते में न आए। मान्यता है कि तर्पण के समय अगर कोई बीच में आ जाए तो उसकी अंगुली से खून निकल सकता है। इसलिए लोग इस परंपरा का पूरी श्रद्धा से पालन करते हैं।


क्षमा याचना और सुख-शांति की कामना


तर्पण के दौरान लोग अपने पूर्वजों से साल भर की भूल-चूक की क्षमा मांगते हैं और परिवार में सुख-शांति और समृद्धि की प्रार्थना करते हैं। यह अनूठी परंपरा न केवल संस्कार और श्रद्धा का प्रतीक है। बल्कि नई पीढ़ी को भी अपने संस्कृतिक मूल्यों से जोड़ने का कार्य कर रही है।


युग से चली आ रही है परंपरा


मेहर समाज के लोगों ने बताया कि यह इतिहास में समाज द्वारा युगों से जो परंपरा चली आ रही है। उसको बड़े विश्वास के साथ निभाया जा रहा है। इस तरह का कार्यक्रम त्रेता युग से चला आ रहा है।


बुजुर्गों का कहना है कि भगवान राम के वनवास पूर्ण कर जब अयोध्या लौटने के बाद दिवाली के दिन अपने पिता राजा दशरथ का तर्पण किया था मान्यता है कि जिनके चलते मेहर समाज द्वारा तभी से यह परंपरा चली आ रही है। इसी तर्पण को पीढ़ी दर पीढ़ी करती आ रही है। इसी दिन दूरदराज रहने वाले व्यक्ति भी अपने पूर्वजों का तर्पण करने आते हैं और अपने पितरों का तर्पण करते हैं।


नई पीढ़ी जुड़ने पर बाटते हैं मिठाई


इस दौरान यदि कोई बालक ऐसे कार्यक्रम में जुड़ता है तो समाज के लोगों द्वारा मिठाई खिलाकर मुंह मीठा करवाया जाता है, जिसको समाज के लोग नई पीढ़ी का जुड़ना भी कहते हैं, जिसको पीढ़ी दर पीढ़ी की जानकारी दी जाती है। इसको लेकर उसके द्वारा घाट पर पूजा अर्चना करवाई जाती है।


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