झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और राज्यसभा सांसद शिबू सोरेन का 81 साल की उम्र में निधन हो चुका है। आज सुबह दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री मोदी ने गंगाराम अस्पताल पहुंचकर शिबू सोरेन को श्रद्धांजलि दी। आज शाम शिबू सोरेन के पार्थिव शरीर को रांची लाया जाएगा। जहां उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा। लेकिन ये कहानी सिर्फ एक चुनाव या नेता की नहीं है। ये एक युग के अंत की कहानी है। शिबू सोरेन का जाना आदिवासी राजनीति के एक बड़े अध्याय का खत्म होना है।
दरअसल साल था 2019। झारखंड विधानसभा चुनावों का ऐलान हो चुका था। ठंडी सुबह थी। दुमका में शिबू सोरेन के घर के बाहर बड़ी भीड़ जुटी थी – हर जाति, धर्म और समुदाय से लोग। सभी अपने नेता के साथ चुनावी अभियान शुरू करने को तैयार थे। थोड़ी ही दूर, करीब दो किलोमीटर आगे, एक और भीड़ जमा थी। वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनावी रैली थी। कुछ दिनों बाद, चुनाव के नतीजे आए। शिबू सोरेन का जादू फिर चला। झारखंड मुक्ति मोर्चा यानी जेएमएम ने रिकॉर्ड जीत हासिल की और सरकार बनाई।
शिबू सोरेन की जिंदगी एक त्रासदी से शुरू हुई। बचपन में ही उनके पिता, शोबरन मांझी की हत्या कर दी गई। वो एक स्कूल शिक्षक थे और साहूकारों के शोषण के खिलाफ खड़े हुए थे। इस हत्या ने छोटे शिवचरण को शिबू बना दिया। आगे चलकर वो “गुरुजी” और “दिसोम गुरु” के नाम से पहचाने जाने लगे। पिता की मौत का बदला लेने का संकल्प इतना गहरा था कि उन्होंने तब तक दाढ़ी न काटने की कसम खाई, जब तक शोषण का अंत न हो जाए। पर उनका बदला सिर्फ एक हत्या तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने पूरे आदिवासी समाज के लिए लड़ाई लड़ी – साहूकारी के खिलाफ, ज़मीन की लूट के खिलाफ, और आदिवासियों की राजनीतिक पहचान के लिए।
उन्होंने युवाओं को साथ लिया और साहूकारों के खिलाफ “धान कटनी आंदोलन” शुरू किया। जिन ज़मीनों पर साहूकार कब्जा कर खेती कर रहे थे, वहां शिबू सोरेन और उनके साथी अपने अधिकार की तरह जाकर फसल काट लाते थे। इस आंदोलन के चलते कई केस दर्ज हुए। लेकिन पुलिस उन्हें कभी पकड़ नहीं पाई।
1972 में शिबू सोरेन ने विनोद बिहारी महतो और ए.के. रॉय के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की। तब तक वो सरकार के लिए एक सिरदर्द बन चुके थे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक उनकी चर्चा पहुंची। उन्हें काबू में लाने के लिए एक युवा आईएएस अधिकारी – के.बी. सक्सेना को धनबाद भेजा गया। लेकिन सक्सेना ने जंगलों में जाकर देखा कि शिबू सोरेन तो वहां रात्रि पाठशाला चला रहे हैं – यानी आदिवासी बच्चों को पढ़ा रहे हैं। सक्सेना ने खुद इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर बताया कि शिबू सोरेन की लड़ाई सही है। इसके बाद 1975 में उन्होंने आत्मसमर्पण किया। और फिर राजनीति की मुख्यधारा में शामिल हो गए। 1980 में वो सांसद बने और झारखंड राज्य की मांग को मजबूती से उठाते रहे। हालांकि उनके ऊपर कई हिंसा के मामले भी लगे – जैसे चिरूडीह हत्याकांड – लेकिन हर मामले में वो बरी हो गए।
साल 2000 तक, यानी दो दशकों तक, उन्होंने झारखंड आंदोलन की अगुवाई की। तमाम नेताओं – अटल बिहारी वाजपेयी, लालू प्रसाद, एल.के. आडवाणी – से संवाद करते रहे, ताकि झारखंड को अलग राज्य का दर्जा मिल सके। आखिरकार, साल 2000 में झारखंड बना – और ये शिबू सोरेन की सबसे बड़ी जीत थी।
आज जब वो इस दुनिया में नहीं हैं, तो सिर्फ झारखंड ही नहीं, बल्कि पूरे देश के आदिवासी समुदाय उन्हें याद किया जा रहा है – उनकी लड़ाई, उनकी प्रतिबद्धता और उनकी जिद को। उनकी सोच, संघर्ष और सपना – झारखंड की मिट्टी में हमेशा जिंदा रहेगा।