
निर्देशक सतीश जैन अब तक संभाले रखें हैं दुर्लभ रील ( Photo - Patrika )
ताबीर हुसैन. आज उस फिल्म ( CG Film ) की रजत जयंती है जिसने छत्तीसगढ़ी सिनेमा इंडस्ट्री को न सिर्फ स्थापित किया बल्कि कई रेकॉर्ड भी अपने नाम किए। इतना ही नहीं इस फिल्म से निकलकर अनुज शर्मा ने लंबी पारी खेली और अब वे सियासत में चमक रहे हैं। जी हां। बात हो रही है सतीश जैन निर्देशित मोर छंइहा भुंईया की। 27 अक्टूबर को यह फिल्म छत्तीसगढ़ के महज तीन सिनेमाघरों में ही रिलीज हो पाई थी। उस वक्त टॉकीज वाले इसे लगाना नहीं चाहते थे। फिल्म के प्रोड्यूसर शिवदयाल जैन हैं जो कि सतीश जैन के पिता हैं। यह पहली सिल्वर जुबली रही। इसका दूसरा और तीसरा पार्ट भी सुपरहिट रहा।
सतीश जैन के पास आज भी उस वक्त की रील (पेटी) मौजूद है। आज जमाना डिजिटल का है, ऐसे में रील दुर्लभ हो चुकी है। उस दौर को याद करते हुए जैन कहते हैं, मुझे आज भी याद है जब मैं ट्रेन से फिल्म की तीन पेटी लेकर रायपुर उतरा और मुझे पिताजी व अन्य कलाकारों ने फूल मालाओं से लाद दिया था। रायपुर की बाबुलाल, बिलासपुर की मनोहर और दुर्ग की शारदा टॉकीज में फिल्म लगी थी।
A. सबसे बड़ी चुनौती थी कि टॉकीज वालों को छत्तीसगढ़ी फिल्मों पर भरोसा नहीं था। क्योंकि इससे पहले 1965 में कहि देबे संदेश और 1971 में घर-द्वार आ चुकी थी लेकिन दोनों फिल्में कमर्शियल तौर पर सफल नहीं थी। इसलिए टॉकीज वालों को यह फिल्म रिस्की प्रोजेक्ट लग रही थी। रायपुर में कोई सिनेमाघर इसे लगाने को तैयार नहीं था। बाबुलाल टॉकीज का साप्ताहिक रेंट 25 से 30 हजार रुपए था लेकिन मेरी मजबूरी का फायदा उठाकर मुझसे 50 हजार रुपए किराया लिए। बिलासपुर में ही यही हाल रहा। इसलिए हमने वहां बंद पड़ी मनोहर टॉकीज को खुलवाया और साफ-सफाई कर फिल्म लगाई।
A. सच कहूं तो मैं सफलता को नहीं पचा पाया। मुझे ओवरकॉन्फिडेंस हो गया था कि जो भी फिल्म बनाऊंगा सुपरहिट होगी। जब मैंने दूसरी फिल्म झन भूलव मां-बाप बनाई तो मेरा अति आत्मविश्वास टूटा क्योंकि उसकी ओपनिंग ही नहीं लगी। बाद में फिल्म चली लेकिन लागत वसूल नहीं हो पाई। हालांकि यह भी बिलासपुर में 100 दिन चली थी।
A. यह फिल्म 17 लाख रुपए में बनी थी जबकि टोटल बिजनेस लगभग 3 करोड़ रुपए का था। शुद्ध लाभ लगभग सवा करोड़ रुपए था। इस कमाई को हमने झन भूलव मां-बाप में लगा दिया जिसमें मुझे नुकसान उठाना पड़ गया। इसके बाद मैंने लंबे समय तक फिल्म प्रोडॺूस नहीं की, निर्देशन करता रहा।
100 दिन तक 5 शो में चली। संडे को 6 शो होते थे।
बंद टॉकीज को खुलवाकर फिल्म चलाना।
बाबुलाल टॉकीज में 7 हफ्ते तक दो लाख रुपए से कम नहीं रहे कलेक्शन।
मेले-मड़ई में जितने कलेक्शन आए आज तक नहीं टूटे।
जिस शहर में फिल्म लगती थी, वहां के सिनेमाघर में अघोषित रूप से बस स्टैंड बन जाता था।
नंबर ऑफ टिकट के मामले में अव्वल रही।
Updated on:
27 Oct 2025 02:55 pm
Published on:
27 Oct 2025 02:04 pm
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