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मिठाई, मेवा, आतिशबाज़ी नहीं है, भीतर की रोशनी है असली दिवाली: आचार्य प्रशांत

यह लेख दिवाली के बाहरी चमक-धमक से हटकर उसके आत्मिक और आध्यात्मिक महत्व को उजागर करता है। सच्ची दिवाली तभी होती है जब भीतर का अंधकार मिटे और मन में सच्चाई, प्रेम व प्रकाश का दीप जले। पढ़िए आचार्य प्रशांत का लेख।

3 min read

भारत

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Devika Chatraj

Oct 17, 2025

achary prashant

दिवाली 2025 (Photo - Patrika)

दुनिया चमक रही है, गलियाँ जगमगा रही हैं, बाजार सजे हुए हैं। पिस्ते, मेवे, मिठाई और महँगे उपहारों की होड़ मची है। हर कोई दिखावे की चमक में डूबा हुआ है लेकिन क्या सच में यही दिवाली है? “यह पिस्ते, यह मेवे, यह उपहार, यह अलंकार ये थोड़े ही हैं दिवाली। जब मन रोशनी हुआ तब दिवाली जानना।”

दिवाली आत्मजागरण का प्रतीक

दिवाली सिर्फ़ एक त्योहार नहीं, बल्कि आत्मजागरण का प्रतीक है। बाहर के दीयों से ज़्यादा ज़रूरी है भीतर का दीप जलना। “पटाखे नहीं फोड़ने होते, झूठ फोड़ना होता है।” जो भीतर जमे झूठ, अहंकार, और मोह के अंधेरे हैं, असली दिवाली तब होती है जब वे जलकर राख हो जाते हैं। आज हम त्यौहार को बाहरी सजावट, महंगे कपड़े और मिठाइयों से जोड़ बैठे हैं। हम देखते हैं पड़ोसी के घर कितने दीये जले, किसने क्या खरीदा, किसने कैसी सजावट की। यह सब तुलना और प्रदर्शन का अँधेरा है।

त्यौहार एक दिन का उत्सव नहीं

“अँधेरा, अँधेरे को पोषण देता है। अँधेरे के पास अँधेरे के तर्क होते हैं। रोशनी की तरफ बढ़ने का कोई तर्क नहीं होता।” अर्थात्, जब तक हम दूसरों के प्रभावों में जीते रहेंगे, तब तक हमारी दीवाली केवल बाहरी दिखावा रहेगी। “रोशनी मतलब समझ में नहीं आता था, उलझे हुए थे, अब चीज़ साफ़ है, अब ठोकरें नहीं लग रहीं। वो रोशनी किसी एक दिन नहीं चाहिए, वो लगातार चाहिए।” त्यौहार कोई एक दिन का उत्सव नहीं, बल्कि निरंतर आत्मजागरण का संकेत है। अगर साल में सिर्फ एक दिन हम प्रेम, सत्य और समझ में जिएँ और बाकी दिनों में झूठ, ईर्ष्या और मोह में, तो वो रोशनी टिकेगी कैसे?

त्यौहार का असली अर्थ

त्यौहार का सही अर्थ है ‘आप राम की ओर वापस गए।’ राम लौटे नहीं, आप लौटे। यानी जब हम भीतर के रावण अहंकार, असत्य, लोभ से मुक्त होकर सत्य की ओर लौटते हैं, तभी सच्ची दीवाली होती है।

आज के समय में दिलों में मिठास नहीं

हम समूह में त्यौहार मनाते हैं, लेकिन भीतर दूरियाँ बनी रहती हैं। हम कहते हैं, “देखो सब साथ हैं, मिलकर जश्न मना रहे हैं।” पर “समूह में करीबी दिखाई देती है, लेकिन दिलों में दूरी रहती है। प्रेम तब होता है जब अलग-अलग दिखते हुए भी अलगाव महसूस न हो।” त्यौहार प्रेम का अवसर है, न कि सामूहिक शोर का।मिठास स्नेह में है, किशमिश में नहीं। “किशमिश में थोड़े ही सच्चाई है, मीठा तो स्नेह होता है।” आज मिठाईयाँ बाँटी जाती हैं लेकिन दिलों में मिठास नहीं। उपहार दिए जाते हैं पर सच्चाई नहीं दी जाती। “किसी को आप क्या उपहार दोगे सच्चाई के अलावा?” सच कहें तो सच्चाई ही सबसे बड़ा उपहार है।

मन में जलन, ईर्ष्या, असंतोष

त्यौहार छुट्टी का दिन नहीं, जीवन जीने का अवसर है। हम कहते हैं, “काम से छुट्टी ली है।“अगर काम में प्रेम होता तो छुट्टी लेने की ज़रूरत क्यों होती?” त्यौहार कोई विश्राम नहीं, बल्कि एक चेतना का अवसर है खुद को देखने का, भीतर झाँकने का, उस अंधेरे को पहचानने का जो साल भर हमें घेरे रहता है। आज बाजार सजे हैं, लेकिन मन जल रहा है। घर जगमगा रहे हैं, पर भीतर आग है जलन, ईर्ष्या, असंतोष की। “बाज़ारें सजी हैं, लेकिन मन शांत नहीं है, तो कैसे हुई दीवाली?”

सिर्फ राम का लौटना दिवाली नहीं

दिवाली तब होती है जब भीतर की आग शांत हो जाए और मन में स्नेह, करुणा और सत्य की रोशनी जल उठे। राम की ओर लौटना ही दिवाली है। जब भीतर के रावणों का अंत होता है, जब जीवन में सत्य का राज्य स्थापित होता है, तभी असली ‘रामराज्य’ आता है “जीवन पूरा ऐसा हो कि अँधेरा हावी नहीं होने देंगे। जीवन पूरा ऐसा हो कि लगातार उतरोत्तर राम की ओर ही बढ़ते रहेंगे।”

जीवन में दीप जलाना जरूरी

बाहरी दीये बुझेंगे, लेकिन भीतर का दीप अगर जल गया तो वो जीवनभर राह दिखाएगा। इसलिए, इस बार दीवाली मनाने से पहले ज़रा रुकिए और देखिए, क्या भीतर अभी भी कोई अंधेरा बाकी है? अगर हाँ, तो वही जलाइए, वही फोड़िए वही होगी आपकी सच्ची दीवाली।