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स्वयं को जानने और स्वयं में ईश्वर को खोजने का संदेश ‘यदा यदाहि धर्मस्य…’ आलेख पर प्रतिक्रियाएं

Reaction On Gulab Kothari Article : पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी के विशेष लेख -यदा यदाहि धर्मस्य... आलेख पर प्रतिक्रियाएं

Reaction On Gulab Kothari Article : धर्म का ह्वास रोकने के लिए गीता को स्वयं के भीतर लागू करने का संदेश देते पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी की आलेखमाला 'शरीर ही ब्रह्मांड' के आलेख 'यदा यदाहि धर्मस्य…' को प्रबुद्ध पाठकों ने सराहा है। उनका कहना है कि लेख मानव शरीर और उसमें निहित शक्तियों का उल्लेख करने वाला है और यह स्वयं को जानने व स्वयं में ईश्वर को खोजने का संदेश देता है। पाठकों की प्रतिक्रियाएं विस्तार से....

गुलाब कोठारी ने सही कहा है कि आत्मा एक पल भी बिना कर्म किए नहीं रह सकती। वास्तव में व्यक्ति की आत्मा जैसा कर्म करती है, उसको वैसा ही फल मिलता है। अगर वह अच्छा काम करेगी तो परिणाम अच्छे व सार्थक होंगे, जबकि गलत काम करने पर फल भी उस व्यक्ति को गलत ही मिलेगा। व्यक्ति में अच्छे और बुरे दोनों गुण होते हैं लेकिन वह व्यक्ति की आत्मा पर निर्भर करता है कि वह किस सोच को लेकर कैसा काम करेगा।
आशुतोष शर्मा, साहित्यकार, शिवपुरी

आज के लेख में कोठारी ने जीव की 84 लाख योनियों की उत्पत्ति का विश्लेषण किया है। गीता में लिखी बातों को आज विज्ञान भी मानता है। व्यक्ति को आत्मज्ञान होना ही निर्णायक है। जीव की उत्पत्ति के बाद उसकी गति के अनुरूप ही अगली योनि प्राप्त होती है।
राजेन्द्र श्रीवास्तव, प्रवक्ता कायस्थ महासभा, भिण्ड

जीवात्मा मनुष्य रूप धारण करता है तो इंद्रियां विषयों को मन तक लाती है। यह बात सत्य है कि मनुष्य अगर अपने इंद्रियों पर नियंत्रण पा ले तो वह ब्रह्मा रूपी आत्मा के समान हो सकता है। लालच, ईष्र्या, क्रोध, स्वार्थ जैसे विषयों से विरक्त होना है तो इंद्रियों पर नियंत्रण करना ही होगा। अन्यथा स्मृतिभ्रम होगा, जो जीव को ज्ञान से दूर करेगा।
प्रेमसिंह सिकरवार, उच्च माध्यमिक शिक्षक, मुरैना

लेख में जिस प्रकार से मानव शरीर और उसमें मौजूद शक्तियों का उल्लेख किया गया है, वह कहीं न कहीं एक मार्गदर्शक का काम कर रहा है। आवश्यकता है इस पर काम करने और इसे चरितार्थ करने की। मनुष्य के शरीर में आत्मा रूपी ब्रह्म जन्म के साथ ही विराजमान हो जाते हैं, लेकिन अहम के भाव के कारण उनसे दूर होते चले जाते हैं। कोठारी ने द्रौपदी और हिरण्यकश्यप के द्वंद्व को बखूबी तरीके से समझाया है। द्रौपदी को लगता था कि कौरव उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे, जब कोई रास्ता नहीं बचा तो कृष्ण को ही पुकारना पड़ा। वहीं हिरण्यकश्यप तमाम शक्तियां हासिल कर खुद को ही ब्रह्म मानने लगा। उसके आसुरी व्यवहार को देखते हुए भगवान को नृसिंह अवतार में उससे मुक्ति दिलाने के लिए आना पड़ा था। हर धर्म की शिक्षा ही है स्वयं को जानना, स्वयं के अंदर के ईश्वर को खोजना है।
विचित्र महाराज, साधक एवं ज्योतिषाचार्य मारकंडेय धाम तिलवारा घाट, जबलपुर

संसार में जो भी सजीव है वह ईश्वर का ही रूप है। सृष्टि के संचालन के लिए इश्वर ने ही अलग-अलग रूपों में जन्म लिया है। कोठारी ने लेख में गीता का उदाहरण देकर ईश्वर की महिमा का बखान किया है। इस तरह के लेख अध्यात्म ज्ञान को बढ़ाते हैं। मनुष्य जीवन मोक्ष प्राप्ति के लिए है। लेकिन अपने निजी स्वार्थ में और माया जाल में उलझ कर समय पर मनुष्य होने का ज्ञान नहीं मिल पाता और ईश्वर को पाने में देर हो जाती है। फिर जीवन मरण के चक्र में आत्मा उलझी रहती है। मनुष्य जीवन ही इससे मुक्ति पाने का साधन है। इसका सद्पयोग किया जाना चाहिए।
पं अनिल दुबे, पुरोहित, मंडला

यदा यदाहि धर्मस्य… पढ़कर भगवाद गीता का श्लोक याद आता है। जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब भगवान स्वयं प्रकट होते हैं। कोठारी भी हमें ईश्वर्य संदेश के रूप में अलग-अलग मुद्दों पर जागरूक करने का ही प्रयास करते हैं। इस आलेख में भी कोठारी ने मनुष्य को अपनी शक्ति का अहसास और अपने आत्मज्ञान का बोध कराया है।
वीरेंद्र सिंह ठाकुर, चित्रकार, साहित्यकार, बुरहानपुर

धर्म, कर्म की अवधारणा के बीच सृष्टि का आलंबन और उसके स्वरूप को पौराणिक उदाहरणों एवं जीवन की सत्यता के साथ उभारता यह आलेख जीवन का एक नया दर्शन प्रस्तुत करता है। आनंद विज्ञान ही अव्यय का स्वरूप है। मन, प्राण और वाणी की अवस्था, उसके विकास का क्रम और उसकी विषद व्याख्या इसके माध्यम से प्रस्तुत हुई है। यह सत्य है कि सृष्टि के गूढ़ अर्थ को समझना बहुत मुश्किल है। इन तत्त्वों में जीवन का सार निहित है। आलेख जीवन के उसी सार तत्त्व को विभिन्नता के माध्यम से प्रस्तुत कर रहा है।
आशीष दशोत्तर, साहित्यकार एवं चिंतक, रतलाम

यह मन ही है जो मनुष्य को सत् और असत् कर्म की ओर प्रेरित करता है। सत्कर्म आत्मा का परिष्कार करते हैं और असतक्र्म आत्मा को ग्लानि की ओर बढ़ाते हैं। फिर भी मनुष्य असत कर्मों की चकाचौंध में उलझा रहता है। धर्म की विजय सत्कर्मों में है, असत कर्मों में नहीं। इस तथ्य को लेख में बहुत सुंदर ढंग से समझाया गया है।
डॉ. शरद सिंह, वरिष्ठ साहित्यकार, सागर

आलेख में धर्म की विस्तृत व्याख्या की गई है। धर्म हर व्यक्ति के जीवन का अभिन्न अंग है। धर्म जहां है वहां जय है। अत: जीवन में धर्म को समाहित करके प्रत्येक व्यक्ति को धर्म मार्ग पर चलना चाहिए। मानव जन्म बार-बार नहीं मिलता है। इसलिए यहां जो आए हैं वो सत्कर्म करें। इससे हमारा यह जन्म सफल होगा।
सुनील कुमार तिवारी, अधिवक्ता, हरदा