hingot war (file photo)
mp news: मध्यप्रदेश के इंदौर के देपालपुर में आज आग के गोले बरसेगें और सैकड़ों लोग एक दूसरे पर अग्निबाण चलाते हुए नजर आएंगे और ये सब होगा उस अनोखी परंपरा के लिए जो सालों से हिंगोट युद्ध के रूप में मनाई जा रही है। परंपरा के तहत दीपावली के दूसरे दिन पड़वा पर इंदौर से 55 किलोमीटर दूर गौतमपुरा में कलंगी व तुर्रा दो दल के योद्धाओं के बीच हिंगोट युद्ध होता है जिसमें हिस्सा लेने और देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग आते हैं।
हिंगोट युद्ध का आयोजन हर वर्ष दिवाली के अगले दिन पड़वा के दिन खेला जाता है। इस दिन लोग दूर-दूर से एकत्रित होकर इस अनोखे नजारे को देखने आते हैं। इस युद्ध में दो दल होते हैं। एक तुर्रा दल और कलंगी दल। तुर्रा दल गौतमपुरा गांव के योद्धाओं का होता है। जबकि कलंगी दल रूणजी गांव के योद्धाओं का होता है। दोनों टीमें शाम को युद्ध मैदान में आमने-सामने खड़ी होती हैं और आग से जलते हिंगोट को एक-दूसरे पर फेंका जाता है। युद्ध शुरु होने से पहले दोनों दल योद्धा पहले एक-दूसरे से गले मिलते हैं और भगवान देवनारायण से आशीर्वाद लेते हैं। इसके बाद रोशनी कम होते ही हिंगोटों की बरसात शुरू हो जाती है। आसमान में उड़ते और जलते गोले ऐसा दृश्य बनाते हैं जो किसी फिल्मी युद्ध से कम नहीं लगता।
हिंगोट युद्ध करीब 200 साल पुरानी परंपरा है। मान्यता है कि मुगल काल के दौरान जब सेना गांवों में लूटपाट करती थीं। तब स्थानीय मराठा योद्धाओं ने हिंगोटों का इस्तेमाल दुश्मन पर वार करने के लिए किया था। इसके बाद यह परंपरा प्रतीकात्मक युद्ध और उत्सव रूप में बदल गई। हिंगोट युद्ध की सबसे खास बात यही है कि ये नफरत नहीं बल्कि भाईचारे का प्रतीक है। युद्ध शुरू होने से पहले ही दोनों टीम एक-दूसरे से गले मिलती हैं और अंत में घायल योद्धाओं के घर पर जाकर उनका हालचाल लेती हैं। इस परंपरा से सीख मिलती है कि असली वीरता किसी को हराने में नहीं, बल्कि साथ निभाने में हैं। जब आसमान में जलते हुए हिंगोट उड़ते हैं तो गौतमपुरा में एक ही स्वर में जय देवनारायण की गूंज चारों ओर सुनाई देती है।
हिंगोट हिंगोरिया नामक पेड़ का फल है। जिसे गांव के लोग कई दिनों पहले ही जंगल से तोड़कर ले आते हैं। नींबू से थोड़े बड़े आकार के फल की ऊपरी सतह नारियल की तरह कठोर और अंदर से गूदे से भरी होती है, जिसे ऊपर से साफ कर एक छोर पर बारीक और दूसरे छोर पर बड़ा छेद कर उसके अंदर बारूद भरकर दो दिन तक धूप में रखा जाता है। इसके छेद को पीली मिट्टी से बंद कर दूसरे बारीक छेद पर बारूद की टीपकी लगाई जाती है। निशाना सीधा रहे इसलिए हिंगोट के ऊपर आठ इंच का बांस की पिंची बांधी जाती है। इस तरह युद्ध में इस्तेमाल किया जाने वाला हिंगोट तैयार होता है। फिर हिंगोट युद्ध के दिन तुर्रा और कलंगी दल के योद्धा सिर पर साफा, कंधे पर हिंगोट से भरे झोले, हाथ में ढाल और जलती लकड़ी लेकर हिंगोट युद्ध मैदान की ओर नाचते गाते निकल पड़ते हैं।
Published on:
21 Oct 2025 11:36 am
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