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चिंगारी से राख तक: फुलझड़ी…जो सिमट गई एक फैक्ट्री तक

बीकानेर में फुलझड़ी बनाने का काम 1962 में पहली बार शुरू हुआ था। उस दौर में स्थानीय के साथ बाहर से भी कारीगर यहां आते थे।

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फुलझड़ी तैयार करते हुए।

फुलझड़ी तैयार करते हुए।

एक वो भी दिवाली थी…इक ये भी दिवाली है। कभी दिवाली पर बीकानेर की फुलझड़ी पूरे देश में रौनक बिखेरती थी। दिल्ली से लेकर आंध्र तक इसकी चिंगारियां चेहरों पर चमक लाती थी। लेकिन वक्त की मार, बढ़ती लागत और घटती मांग ने उस चमक को धुंधला कर दिया। उस दौर में 200 से ज्यादा मंझे कारीगरों का हुनर एक साथ जल उठता था, तो जहां आतिशबाजी करने वाले घरों में लोगों के चेहरों पर चमक दौड़ जाती थी। तो वहीं सिक्कों की खनक से श्रमिकों-कारीगरों समेत इस व्यवसाय से जुड़े स्थानीय लोगों के घरों में लक्ष्मी का प्रवेश होता था। अब हालत यह है कि कभी देशभर में डंका बजाने वाली बीकानेर की फुलझड़ी सिर्फ एक फैक्ट्री और 50 कारीगरों तक सीमित रह गई है।

1962 से शुरू हुई थी परंपरा
बीकानेर में फुलझड़ी बनाने का काम 1962 में पहली बार शुरू हुआ था। उस दौर में स्थानीय के साथ बाहर से भी कारीगर यहां आते थे। दिवाली से एक महीने पहले पूरा इलाका कारीगरों की हलचल से गुलजार हो जाता था। उस समय 200 से अधिक लोग इस काम से जुड़े रहते थे।

सप्लाई पूरे देश में, अब सीमित जिलों तक
तब दिल्ली, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश तक होती थी सप्लाई। अब हरियाणा के कुछ जिले, जोधपुर, चूरू, नागौर, सीकर, अजमेर, उदयपुर और हनुमानगढ़ तक ही आपूर्ति सीमित रह गई है। कुछ साल पहले तक बीकानेर में दो फैक्ट्रियां सक्रिय थीं, लेकिन एक का लाइसेंस निरस्त हुआ और दूसरी बढ़ती लागत व घटती बिक्री से बंद हो गई। अब केवल एक ही फैक्ट्री बची है।

अब बस चिंगारी बचाने की जद्दोजहद
एक समय था जब बीकानेर की बनी फुलझड़ियां देश के हर कोने में जाती थीं। लागत बढ़ने और बिक्री सीमित रहने की वजह से छोटी इकाइयों का अस्तित्व खतरे में आ गया। प्रतिस्पर्धा के इस युग में अब यहां की फुलझड़ी शहर और आसपास के क्षेत्रों तक ही सीमित होकर रह गई है। अब कई इकाइयां बंद भी हो चुकी हैं। अभी फिलहाल एक ही फैक्ट्री में फुलझड़ी बनाने का काम चल रहा है।

- वीरेंद्र किराडू, सचिव, फायर वर्क्स एसोसिएशन