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दादा-दादी बच्चों की स्क्रीन आदतें तय करने में निभाते हैं बड़ी भूमिका

दादा-दादी बच्चों के स्क्रीन टाइम से जुड़े जो फैसले लेते हैं, वे इस बात को प्रभावित करते हैं कि बच्चे कैसे सीखते हैं, कैसे सोचते हैं और अपना समय कैसे बिताते हैं — और अब इन फैसलों का असर पहले से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है।

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शालिनी अग्रवाल

जयपुर। बच्चों को पालने में हमेशा कहा गया है कि “पूरा गांव लगता है” — और आज के दौर में उस गांव में स्क्रीन भी शामिल हो गई है। कार्टून, वीडियो गेम, या यू-ट्यूब वीडियो – दादा-दादी ही अक्सर यह तय करते हैं कि बच्चों के लिए क्या ठीक है और क्या नहीं। यह सिर्फ बच्चों को व्यस्त रखने का मामला नहीं है। दादा-दादी बच्चों के स्क्रीन टाइम से जुड़े जो फैसले लेते हैं, वे इस बात को प्रभावित करते हैं कि बच्चे कैसे सीखते हैं, कैसे सोचते हैं और अपना समय कैसे बिताते हैं — और अब इन फैसलों का असर पहले से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है।


माता-पिता की राह पर चलते दादा-दादी

आजकल दादा-दादी पहले से कहीं ज्यादा बच्चों के जीवन में सक्रिय हैं। कई तो हफ्ते में कई बार या रोज़ाना बच्चों की देखभाल करते हैं। और हर जगह स्क्रीन होने के कारण, वे लगातार मीडिया से जुड़े फैसले लेते रहते हैं।

ज्यादातर दादा-दादी यह फैसले खुद से नहीं लेते, बल्कि माता-पिता के बनाए नियमों का पालन करते हैं। इसे शोधकर्ताओं ने “सेकंडरी मेडिएशन” कहा है — यानी जब देखभाल करने वाला व्यक्ति (जैसे दादा-दादी) किसी और के बनाए नियमों के आधार पर बच्चों के स्क्रीन टाइम को नियंत्रित करता है।

इसका मतलब है कि वे बच्चों के लिए स्क्रीन टाइम की सीमा तय करते हैं, उनके साथ शो देखते हैं, या उन्हें कुछ खास गेम्स और वीडियोज से दूर रखते हैं।


अध्ययन में क्या पाया गया

यह अध्ययन रटगर्स यूनिवर्सिटी (अमेरिका) और बेन-गुरियन यूनिवर्सिटी ऑफ द नेगेव (इज़राइल) के प्रोफेसरों ने किया। इसमें 267 दादी और माताओं के जोड़े शामिल थे, जिनके बच्चे 4 से 8 साल के थे। दादियों से फोन पर बातचीत की गई और माताओं ने ऑनलाइन सर्वे भरा।

शोधकर्ताओं ने स्क्रीन उपयोग को दो हिस्सों में बांटा:


  1. नॉन-इंटरएक्टिव उपयोग — जैसे शो, मूवी या वीडियो देखना, जहां बच्चा सिर्फ देखता है।




  2. इंटरएक्टिव उपयोग — जैसे वीडियो गेम या ऑनलाइन एक्टिविटी, जिसमें क्लिक करना, चलना या निर्णय लेना शामिल है।

नतीजों में पाया गया कि दादा-दादी नॉन-इंटरएक्टिव उपयोग पर ज्यादा नियंत्रण रखते हैं। यानी वे बच्चों के साथ टीवी शो पर बात करना ज्यादा पसंद करते हैं, लेकिन गेम खेलने में उतना शामिल नहीं होते।


हर परिवार में अलग तरीका

हालांकि ज्यादातर दादा-दादी माता-पिता के बनाए नियम मानते हैं, लेकिन हर परिवार में तरीका अलग होता है।

यह इस बात पर निर्भर करता है कि माँ और दादी के रिश्ते कितने घनिष्ठ हैं, दादी तकनीक को कितना समझती हैं, बच्चे के साथ कितना समय बिताती हैं, और उनकी शिक्षा का स्तर क्या है।

कुछ दादा-दादी सख्ती से नियमों का पालन करते हैं, कुछ थोड़े ढीले रहते हैं। और कई बार तो दादी की राय इतनी प्रभावशाली होती है कि वही नियम तय करने में मदद करती हैं।

शोधकर्ता डैफना लेमिश ने कहा,
“अब तक अधिकतर शोध यह देखते रहे हैं कि माता-पिता बच्चों के मीडिया उपयोग को कैसे नियंत्रित करते हैं — लेकिन दादा-दादी की भूमिका पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। मैंने खुद एक दादी होने के नाते इस विषय में खास रुचि ली।”


छोटी पसंदें, बड़ा असर

आज बच्चे मीडिया से भरी दुनिया में बड़े हो रहे हैं। स्क्रीन के साथ उनका व्यवहार यह तय करता है कि वे कैसे सोचते, महसूस करते और दूसरों से जुड़ते हैं।

दादा-दादी बच्चों को हिंसा, बदमाशी, गलत सूचनाओं और रूढ़ियों से बचाने में मदद कर सकते हैं। साथ ही वे बच्चों की सीखने की क्षमता, रचनात्मकता और भावनात्मक विकास को बढ़ावा दे सकते हैं।


माता-पिता और दादा-दादी में संवाद जरूरी

अध्ययन के अनुसार, माता-पिता के बनाए स्क्रीन टाइम नियम हमेशा वैसे के वैसे दादा-दादी तक नहीं पहुंचते। यह कोई “रेसिपी” की तरह ट्रांसफर नहीं होती। नियमों का पालन इस बात पर निर्भर करता है कि दोनों पीढ़ियों में रिश्ते कैसे हैं, दादा-दादी तकनीक में कितने सहज हैं और वे बच्चों के साथ कितना समय बिताते हैं।

लेमिश ने कहा,
“यह जरूरी है कि माता-पिता और दादा-दादी मीडिया उपयोग के बारे में समान सोच रखें और एक-दूसरे को सहयोग दें, ताकि बच्चे के सामने विरोधाभासी संदेश न जाएं।”

उन्होंने परिवारों को सलाह दी,
“मीडिया के बच्चों के जीवन में क्या रोल हैं, इस पर आपस में बात करें। बच्चे की उम्र, परिस्थितियों और मीडिया कंटेंट को ध्यान में रखते हुए साझा नियम और मूल्य तय करें। यह भी तय करें कि किन हालात में उन नियमों से थोड़ी छूट दी जा सकती है।”

यह पूरा अध्ययन Journal of Aging Studies नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ है।