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Premanand Ji Maharaj : मांसाहारी लोगों को भगवान का प्रसाद देना चाहिए या नहीं? जानिए क्या कहा प्रेमानंद जी महाराज ने

Prasad be Given to Non-Vegetarians : प्रेमानंद महाराज ने बताया कि श्रद्धा से ग्रहण किया गया प्रसाद बुद्धि को शुद्ध करता है और पाप मिटाता है। जानिए इस दिव्य उपदेश का गूढ़ अर्थ।

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भारत

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Manoj Vashisth

Oct 31, 2025

Premanand Ji Maharaj

Premanand Ji Maharaj : भगवान का प्रसाद और मांसाहारी व्यक्ति – जानिए प्रेमानंद जी महाराज का दिव्य उत्तर (फोटो सोर्स: bhajanmargofficial11)

Premanand Ji Maharaj : प्रेमानंद जी महाराज से एक भगत ने पूछा अगर हम मंदिर से लाया प्रसाद किसी को वितरित करते हैं और अगर वह इंसान मांसाहारी या अभक्ष पदार्थ आदि का सेवन करता है तो पाप हमें तो नहीं लगेगा। प्रेमानंद जी महाराज ने कहा, नहीं जरूर पवा देना चाहिए। यदि वह श्रद्धा से प्रसाद खाएगा तो उसकी बुद्धि शुद्ध होगी तो एक दिन गंदे आचरण छोड़ देगा। भगवान का प्रसाद चरणामृत के समान है। भगवत प्रसाद बुद्धि को पवित्र करता है। प्रेमानंद जी महाराज ने कहा ,यदि हम ऐसे लोगों को भी प्रसाद देते हैं और वह प्रसाद का अनादर ना करते हो तो देना चाहिए। और आदर सहित प्रसाद सेवन कर लेते हैं उसमें पाप नहीं लगेगा। उसमें पुण्य लगेगा क्योंकि उसके पाप नष्ट हो सकते है।

प्रेमानंद जी महाराज से पूछे गए सवाल से क्या सिख मिलती है | Premanand Ji Maharaj Explains: Why Distributing Prasad Brings Purity

प्रसादम के माध्यम से आध्यात्मिक शुद्धि: सवाल इस बात पर प्रकाश डालता है कि प्रसादम केवल भोजन नहीं है, बल्कि एक पवित्र पदार्थ है जो बुद्धि को शुद्ध कर सकता है। इससे पता चलता है कि आध्यात्मिक साधनाओं और अर्पण में उनके भौतिक रूप से परे परिवर्तनकारी शक्ति होती है, जो धार्मिक अनुष्ठानों में आस्था और पवित्रता के महत्व पर बल देता है।

प्रसादम वितरण में समावेशिता: अक्सर यह माना जाता है कि प्रसादम केवल भक्तों या पूर्णतः शाकाहारी व्यक्तियों के बीच ही बांटा जाना चाहिए। हालांकि, यह ग्रंथ इस धारणा को चुनौती देते हुए पुष्टि करता है कि मांस या अशुद्ध खाद्य पदार्थों का सेवन करने वाले लोग भी पाप उत्पन्न किए बिना प्रसादम ग्रहण कर सकते हैं।

प्रसादम ग्रहण करने में आस्था की भूमिका: पापों को धोने और मन को शुद्ध करने में प्रसादम की प्रभावशीलता काफी हद तक प्राप्तकर्ता की आस्था और अर्पण के प्रति सम्मान पर निर्भर करती है। यह धार्मिक प्रथाओं के मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक आयाम को रेखांकित करता है, जहाँ विश्वास और श्रद्धा प्रसादम में निहित पवित्र शक्ति को सक्रिय करती है।

समय के साथ परिवर्तन: श्रद्धापूर्वक प्रसाद ग्रहण करने से अंततः बुरे आचरण का त्याग होता है। यह दर्शाता है कि आध्यात्मिक प्रगति एक क्रमिक प्रक्रिया है, जो तत्काल परिवर्तन के बजाय पवित्र प्रभावों के निरंतर संपर्क से पोषित होती है। यह आध्यात्मिक जीवन में धैर्य और दृढ़ता को प्रोत्साहित करता है।

दान का पुण्य: प्रसाद अर्पित करना न केवल ग्रहणकर्ता के लिए, बल्कि देने वाले के लिए भी लाभदायक होता है। यह कार्य स्वयं में पुण्यदायी माना जाता है, जिससे आध्यात्मिक लाभ (पुण्य) प्राप्त होता है और व्यक्ति के कर्म में सकारात्मक योगदान होता है। यह दोहरा लाभ भक्तों को उदारतापूर्वक प्रसाद बांटने के लिए प्रेरित करता है।


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