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हत्या के केस में छेड़छाड़ करना गंभीर व शर्मनाक अपराध है, ऐसे अधिकारी पुलिस रखना न्याय व विभाग के लिए घातक है

हाईकोर्ट की युगल पीठ ने पूर्व पुलिस सब-इंस्पेक्टर सुरेशचंद्र शर्मा की सेवा से बर्खास्तगी को बरकरार रखा है। कोर्ट ने कहा कि हत्या के मामले की जांच में दस्तावेजों से छेड़छाड़ पुलिस अधिकारी द्वारा किया गया गंभीर और शर्मनाक अपराध है। ऐसे अधिकारी को पुलिस विभाग में बनाए रखना विभागीय अनुशासन और न्याय व्यवस्था दोनों […]

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The court dismissed the writ appeal and made a serious remark, - He was dismissed for tampering with the murder case.

The court dismissed the writ appeal and made a serious remark, - He was dismissed for tampering with the murder case.

हाईकोर्ट की युगल पीठ ने पूर्व पुलिस सब-इंस्पेक्टर सुरेशचंद्र शर्मा की सेवा से बर्खास्तगी को बरकरार रखा है। कोर्ट ने कहा कि हत्या के मामले की जांच में दस्तावेजों से छेड़छाड़ पुलिस अधिकारी द्वारा किया गया गंभीर और शर्मनाक अपराध है। ऐसे अधिकारी को पुलिस विभाग में बनाए रखना विभागीय अनुशासन और न्याय व्यवस्था दोनों के लिए घातक होगा। जब किसी पुलिस अधिकारी के खिलाफ दोषसिद्धि कायम हो जाती है, तो उसे सेवा से हटाना पूरी तरह उचित है। कोर्ट ने कि पुलिस विनियम (रेगुलेशन 238) का हिंदी और अंग्रेजी दोनों संस्करण दोषसिद्ध अधिकारी को सेवा से हटाने की अनुमति देते हैं। इस मामले में न तो विभागीय सुनवाई की आवश्यकता थी और न ही अधिकारी को सेवा में बनाए रखने का कोई औचित्य।

दरअसल गुना निवासी सुरेशचंद्र शर्मा को सजा के आधार पर पुलिस विभाग ने 28 फरवरी 2000 को आदेश जारी कर उन्हें सेवा से बर्खास्त कर दिया। विभागीय अपील भी खारिज हो गई। इसके बाद उन्होंने हाईकोर्ट में रिट याचिका और फिर डिवीजन बेंच में अपील दायर की। उनकी ओर से तर्क दिया कि उसे सुनवाई का अवसर नहीं दिया गया। बिना सुनवाई अवसर के कार्रवाई की गई है। एकल पीठ ने याचिका खारिज कर दी। एकल पीठ के आदेश के खिलाफ युगल पीठ में रिट अपील दायर की, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया और गंभीर टिप्पणी की।

मामला क्या था

गुना निवासी सुरेशचंद्र शर्मा वर्ष 1973 में सीधे भर्ती होकर पुलिस विभाग में सब-इंस्पेक्टर बने थे और लगभग 27 साल तक सेवा दी। सागर जिले के नरयावली थाने में पदस्थ रहते हुए उन्हें एक डबल मर्डर केस की जांच का जिम्मा सौंपा गया था। इस मामले में उन्होंने अदालत में जो चार्जशीट पेश की और आरोपियों को जो प्रतियां उपलब्ध कराईं, उनमें भारी विसंगतियां पाई गईं। सेशन कोर्ट ने पाया कि मूल दस्तावेजों और आरोपियों को दी गई प्रतियों में अंतर था और कई जगह समय का उल्लेख तक नहीं था। सेशन कोर्ट ने जांच को गंभीरता से लेते हुए इस मामले में कड़ी आपत्ति दर्ज की और शर्मा के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 194 के तहत मुकदमा दर्ज करने के आदेश दिए। इसके बाद उनके खिलाफ आपराधिक मामला चला।

1998 में हुई थी सजा

13 जनवरी 1998 को ट्रायल कोर्ट ने शर्मा को तीन साल की कैद और 500 रुपए जुर्माने की सजा सुनाई। बाद में उन्होंने हाईकोर्ट में अपील की, जहां सजा घटाकर एक साल कर दी गई, लेकिन जुर्माना बढ़ाकर 5000 रुपए कर दिया गया। इसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) भी खारिज हो गई। इस तरह दोषसिद्धि अंतिम रूप से कायम हो गई।