
दिल्ली HC ने पोक्सो मामले में अग्रिम जमानत देने से किया इनकार (File Photo)
दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में दो अलग-अलग दुष्कर्म मामलों में सुनवाई के दौरान सख्त टिप्पणियां कीं, जो सहमति और दोस्ती के दावों को लेकर थीं। इन मामलों में अदालत ने स्पष्ट किया कि सहमति से बने संबंधों को अपराध का नाम देना उचित नहीं है, लेकिन साथ ही दोस्ती को यौन हिंसा या शारीरिक शोषण का लाइसेंस नहीं माना जा सकता।
प्रथम मामले में, जस्टिस मनोज कुमार ओहरी ने कुंदन सिंह नेगी की अपील को स्वीकार करते हुए उसकी दोषसिद्धि और सजा को रद्द कर दिया। अदालत ने पाया कि पीड़िता और आरोपी के बीच सहमति से संबंध थे। पीड़िता ने 14 नवंबर 2016 को शिकायत दर्ज की थी, जिसमें उसने आरोप लगाया था कि आरोपी ने उसका न्यूड वीडियो बनाकर उसे वायरल करने की धमकी दी और 10 नवंबर 2016 को जबरन दुष्कर्म किया। इसके बाद 12 और 13 नवंबर को भी उसने धमकी देकर पीड़िता के साथ दुर्व्यवहार किया।
अदालत ने पाया कि पीड़िता और आरोपी के बीच दो महीने की जान-पहचान थी और घटना के बाद भी पीड़िता आरोपी से मिलती रही, साथ रहती थी और यहां तक कि जेल में भी उससे मिलने गई। इस आधार पर अदालत ने कहा कि संबंध सहमति से थे और इसे अपराध का रंग नहीं दिया जा सकता।
दूसरे मामले में, दिल्ली हाईकोर्ट ने 17 वर्षीय नाबालिग लड़की से दुष्कर्म के आरोपी को अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया। न्यायमूर्ति स्वर्ण कांत शर्मा ने यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (Pocso) अधिनियम के तहत याचिका खारिज करते हुए कहा कि “दोस्ती बलात्कार, बंधक बनाने या पीड़िता को बेरहमी से पीटने का लाइसेंस नहीं देती।”
FIR के अनुसार, नाबालिग लड़की कई वर्षों से आरोपी को पड़ोसी के रूप में जानती थी। आरोपी ने उसे अपने एक दोस्त के घर ले जाकर बार-बार मारपीट की और घटना का खुलासा करने पर जान से मारने की धमकी दी। आरोपी ने दावा किया कि उनका रिश्ता सहमति से था, लेकिन अदालत ने इसे खारिज करते हुए कहा कि दोस्ती यौन हिंसा को उचित नहीं ठहरा सकती।
जस्टिस शर्मा ने यह भी उल्लेख किया कि चिकित्सा साक्ष्य पीड़िता के बयान का समर्थन करते हैं, जिससे अभियोजन पक्ष का मामला मजबूत होता है। आरोपी ने तर्क दिया कि एफआईआर घटना के 11 दिन बाद दर्ज की गई, लेकिन अदालत ने इसे खारिज करते हुए कहा कि नाबालिग के आघात और भय के कारण शिकायत में देरी स्वाभाविक थी।
17 अक्टूबर के अपने आदेश में, जस्टिस शर्मा ने कहा कि आरोपों की गंभीर प्रकृति को देखते हुए हिरासत में पूछताछ आवश्यक है। अतः अग्रिम जमानत का कोई आधार नहीं बनता। याचिका को खारिज करते हुए अदालत ने जांच में सहयोग न करने और पूर्व में चार बार जमानत याचिकाओं के खारिज होने या वापस लिए जाने का भी हवाला दिया।
Updated on:
24 Oct 2025 03:53 pm
Published on:
24 Oct 2025 01:13 pm
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