पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (फोटो-एएनआई)
जयपुर। प्रदेश में बोर्ड और आयोग राजनीतिक लाभ व सामाजिक समीकरण साधने का आसान जरिया बन गए हैं। राज्य में करीब 40 से अधिक ऐसे बोर्ड, आयोग और अकादमियां हैं, जहां अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति को गंभीरता से लेने के बजाय हर सरकार इनको राजनीतिक नियुक्तियों का ठिकाना बनाती आ रही है।
अधिकांश नियुक्तियां सरकार के कार्यकाल के आखिरी दो-तीन वर्षों में होती हैं, जब चुनाव नजदीक होते हैं तो समाजों को साधने की कवायद तेज हो जाती है।
आयोगों में अध्यक्ष-सदस्यों के खाली पदों को लेकर पूर्व में हाईकोर्ट चिंता जता चुका है। कोर्ट ने कहा था कि बोर्ड-आयोग लंबे समय तक खाली न रखे जाएं और इनकी जानकारी नियमित रूप से सरकारी वेबसाइट पर अपडेट की जाए।
ताजा उदाहरण पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार का है, जिसके कार्यकाल में अलग-अलग समय पर करीब 36 नए बोर्ड और आयोगों की घोषणाएं की गईं। यह घोषणाएं लगभग हर समाज-जाति वर्ग को साधने की रणनीति का हिस्सा थीं। चुनाव आचार संहिता से कुछ दिन पहले तक ऐसी घोषणाओं का सिलसिला जारी रहा, लेकिन अधिकांश में आज तक नियुक्तियां नहीं हुईं। यानी कागजों पर भले हर समाज के लिए आयोग बन गए, लेकिन समाजों को उनका व्यावहारिक लाभ नहीं मिला।
पूर्ववर्ती सरकार में ज्यादातर नियुक्तियां स्थायी प्रकृति के बोर्ड-आयोगों में हुईं। इनमें करीब 70 अध्यक्ष व उपाध्यक्ष बनाए गए। इनमें से 35 को मंत्री का दर्जा दिया गया। 4 को कैबिनेट और 31 को राज्यमंत्री का दर्जा देकर सुविधाएं दी गई थी। कई में नियुक्तियां तो विधानसभा चुनाव आचार संहिता लगने से ठीक पहले हुई, जिससे वे पदभार तक ग्रहण नहीं कर सके।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राजस्थान में बोर्ड और आयोगों को केवल चुनावी हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। अगर इनमें समयबद्ध नियुक्तियां हों और राजनीतिक तुष्टिकरण के बजाय वास्तविक कार्य के लिए सक्रिय किया जाए, तो समाजों को सीधा लाभ मिल सकता है।
Published on:
30 Aug 2025 02:47 pm
बड़ी खबरें
View Allजयपुर
राजस्थान न्यूज़
ट्रेंडिंग