खुली रिश्तों की गिरहें.. आहिस्ता-आहिस्ता
घर का चूल्हा जलता रहे, इसके लिए सावित्री (रूचि भार्गव) नौकरी करती है। लेकिन एक औरत काम से घर नहीं वापस काम पर लौटती है। कमोबेश ऐसा ही हाल सावित्री का भी है। ऑफिस से घर लौटने पर थकी-हारी सावित्री खुद को साफ-सफाई और रसोई के धुंए में झोंक देती है। जिम्मेदारी के बोझ ने उसे बड़बड़ाने का 'नुस्ख' भी दिया है। वह हर समय किसी न किसी 'कमी' पर खुद को बड़बड़ाने से रोक नहीं पाती है। इस अभाव भरी जिंदगी के लिए वह अपने पति महेन्द्रनाथ (साहिल आहूजा) को दोषी ठहराती है, जिसके पास कमाई का कोई जरिया नहीं है और सारा दिन घर पर ही रहता है।
उसकी स्कूल में पढ़ने वाली छोटी बेटी किन्नी (लक्ष्मी तिवारी) 'उम्र से बड़ी' बातों के बारे में जानने को उत्सुक रहती है। जबकि उसका इकलौता बेरोजगार बेटा अशोक (संदीप स्वामी) फिल्मी अभिनेत्रियों के फोटो में अपनी जिंदगी की बदसूरती को भूलने की कोशिश में लगा रहता है। बड़ी बेटी बिन्नी (आयुषी दीक्षित) ने घर से भागकर शादी की है। अब वह भी 'बेनामी खत' की तरह बाबुल के घर वापस आ गई है। मंच पर इन सभी किरदारों के आपसी रिश्तों की कड़वाहट धीरे-धीरे दर्शकों के सामने आती है।
मंच पर रूपकों में दिखी कलह और विसंगती
धूल-धूसरित टूटे-पुराने घर का सेट, नाम का फर्नीचर, डाइनिंग टेबल और ड्राइंग रूम में गंदगी घर के सदस्यों के बीच अंदरूनी खींचतान को जाहिर करती है। सावित्री और बिन्नी जैसी महिलाओं के लिए समाज का कानून न 60 के दशक में बदला था न ही आज डिजिटल युग में कोई परिवर्तन हुआ है। दर्शक उस समय अपने अंदर कुछ टूटा हुआ सा महसूस करते हैं, जब सावित्री के बारे में उन्हें पता चलता है कि वह अपनी शादीशुदा जिंदगी के इतर एक 'सक्षम पुरुष' की तलाश में है। सावित्री यह नहीं समझ पाई कि इस दुनिया में एक 'पूर्ण पुरुष' की उसकी खोज अंतहीन है।
यही उसकी पीड़ा का सबसे बड़ा कारण भी है। दर्शकों को उससे सहानुभूति भी है और एक तरह का गुस्सा भी। मोहन राकेश के लिखे संवादों में इतनी गहराई है कि वह सीधे अंतर्मन को छूते हैं और किरदारों के भीतर उठ रहे भावनाओं के तूफान को जाहिर करने में सक्षम हैं।
पुरुष अपनी मर्जी के मालिक, औरत को हक नहीं
नाटक पुरुष प्रधान समाज में सदियों से महिलाओं के साथ हो रहे पक्षपात पर भी रोशनी डालता है। नाटक में महिला किरदार पुरुषों की तुलना में अधिक निराश और अधूरी हैं। सावित्री के घर के दोनों पुरुष बेरोजगार हैं और उन्हें इस बात की जरा भी चिंता नहीं है। यह संकेत है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था में पुरुषों को अपनी मर्जी से जीने का अधिकार है, लेकिन महिलाओं को पुरुषों के अधीन और उन पर निर्भर रहने की बेडिय़ों में जकड़ा गया है। वह हमेशा अनुसरण ही करती है, पहले पिता का, फिर भाई का, फिर पति का उसके बाद बेटे का और अंत में 'आधी-अधूरी' ही दुनिया से विदा हो जाती है।
सावित्री की हालत भी कुछ ऐसी ही है। उसे इस अन्याय का एहसास होता है कि बेरोजगार पति उसके जितनी परेशानियों के थपेड़े नहीं खा रहा। सवाल यह है कि ***** के आधार पर 'आजादी' का बंटवारा करने वाले इस समाज में महेन्द्रनाथ पश्चाताप महसूस किए बिना जो चाहे कर सकता है। यहां लेखक ने यह स्पष्ट करने की कोशिश की है कि केवल पुरुष ही मौजूदा सामाजिक व्यवस्था में जीवन का आनंद ले सकते हैं। मंच पर किरदार जितनी बार बातें आधी-अधूरी रह जाती हैं, वह नाटक की थीम को जीवंत कर देता है।
Published on:
09 Sept 2023 06:56 pm