
परंपरा की लौ जिंदा (Photo source- Patrika)
Diwali 2025: दीपावली आते ही हर ओर रौशनी का समंदर उमड़ पड़ता है। बाजार रंग-बिरंगे लाइटों, प्लास्टिक के दीयों और आर्टिफिशियल सजावटों से पट जाते हैं। लेकिन इसी चमक-धमक के बीच, कुछ घर अब भी ऐसे हैं जहाँ परंपरा की धीमी आँच पर उम्मीद की लौ जल रही है मिट्टी की सौंधी खुशबू के साथ। यह कहानी है भोपालपटनम के तिमेड़ गाँव की, जहाँ आज भी कुछ कुहार परिवार अपनी परंपरागत कला को जिंदा रखे हुए हैं।
मिट्टी, पानी और श्रम से जन्म लेता है उनका हर दिया, जो सिर्फ घर नहीं, दिलों को भी रौशन करता है। 65 वर्षीय राजाराम समुद्रला पिछले तीस साल से लगातार इस कला को जिंदा रखे हुए हैं। उनकी हथेलियों की लकीरों में अब भी वही मिट्टी की खुशबू बसती है, जो कभी गाँव-गाँव दीप जलाया करती थी। उनकी जीवनसंगिनी मल्लका समुद्रला आज भी उनके साथ चाक के पास बैठकर मिट्टी को आकार देती हैं।
राजाराम बताते हैं हम बचपन से यही काम करते आ रहे हैं। पहले दीवाली में सैकड़ों दीये बिक जाते थे। अब मशीन वाले दीयों ने हमारी मिट्टी की महक को ढक दिया है। वे तेलंगाना के मादेहपुर के रहने वाले हैं, लेकिन अब भोपालपटनम के साप्ताहिक बाजार में दीये और बर्तन बेचकर ही गुजर-बसर कर रहे हैं।
राजाराम का 20 वर्षीय नाती सदानंदम चेन्नूरी पढ़ाई के साथ दादा-दादी का हाथ बंटाता है। वह बताता है अब पहले जैसी बिक्री नहीं होती, पर जब लोग हमारे बनाये दीये खरीदते हैं, तो लगता है अभी सब खत्म नहीं हुआ है।
Diwali 2025: तिमेड़ गाँव के आसालू (60) और उनकी पत्नी शारदा (58) भी मिट्टी के दीये बनाते हैं। उनके पिता कभी आंध्रप्रदेश के चेन्नर से यहाँ आए थे। आसालू बताते हैं पहले हम फेरी लगाकर गाँव-गाँव बर्तन बेचते थे। अब बाजार में भीड़ तो है, पर ग्राहक नहीं। पाँच साल में काम बहुत घट गया है।
इन कुहार परिवारों की जिंदगी मिट्टी में रची-बसी है वही मिट्टी जो कभी घरों को रोशन करती थी, आज उनके संघर्ष की कहानी बन गई है। फिर भी, इनकी आँखों में उम्मीद की चमक अब भी बाकी है। हर दीया जो वे बनाते हैं, वो सिर्फ मिट्टी का नहीं उम्मीद का प्रतीक है।
Published on:
19 Oct 2025 01:42 pm
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