शालिनी अग्रवाल
जयपुर। रासायनिक प्रदूषण को मानव और प्रकृति के लिए जलवायु परिवर्तन जितना ही बड़ा खतरा बताया गया है, लेकिन रिपोर्ट में कहा गया है कि इस पर न तो उतनी जागरूकता है और न ही वैसी कार्रवाई, जैसी वैश्विक तापमान वृद्धि के मामले में देखने को मिलती है।
इस रिपोर्ट के अनुसार, औद्योगिक अर्थव्यवस्था ने अब तक 100 मिलियन से अधिक ऐसे रसायनों को जन्म दिया है, जो प्रकृति में नहीं पाए जाते। इनमें से 40,000 से लेकर 3.5 लाख तक रसायन आज भी व्यावसायिक उत्पादन और उपयोग में हैं। लेकिन इनका मानव शरीर और पर्यावरण पर क्या असर हो रहा है, यह अभी भी व्यापक रूप से समझा या माना नहीं गया है — जबकि ADHD, बांझपन और कैंसर जैसी गंभीर समस्याओं से इनका संबंध लगातार वैज्ञानिक शोध में सामने आ रहा है। डीप साइंस वेंचर्स (DSV) के सीनियर क्लाइमेट एसोसिएट हैरी मैकफर्सन ने बताया, “लोग यह मान लेते हैं कि जो चीज़ें हम हर दिन उपयोग करते हैं — जैसे हवा, पानी, खाना, शैंपू, क्लीनिंग प्रोडक्ट्स, फर्नीचर — ये सब अच्छी तरह जांचे-परखे गए होंगे, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है।” रिपोर्ट तैयार करने के लिए मैकफर्सन और उनकी टीम ने 8 महीने तक वैज्ञानिक शोध पत्रों का विश्लेषण किया और दर्जनों वैज्ञानिकों, सामाजिक संगठनों और निवेशकों से बातचीत की।
रिपोर्ट की मुख्य बातें
3,600 से अधिक सिंथेटिक रसायन जो फूड पैकेजिंग और बर्तनों में उपयोग होते हैं, मनुष्यों के शरीर में पाए गए हैं, जिनमें से 80 को विशेष रूप से चिंताजनक माना गया है। PFAS जैसे ‘फॉरएवर केमिकल्स’ लगभग हर व्यक्ति के शरीर में पाए गए हैं — यहां तक कि अब कई जगहों पर बारिश का पानी भी पीने लायक नहीं रह गया है। विश्व की 90% से अधिक आबादी ऐसा वायु प्रदूषण झेल रही है जो WHO के मानकों से अधिक है। ये रसायन शरीर में जाकर प्रजनन, प्रतिरक्षा, स्नायु, फेफड़े, जिगर, किडनी और हॉर्मोनल सिस्टम को नुकसान पहुंचा सकते हैं। विशेष रूप से कीटनाशकों (पेस्टीसाइड्स) और गर्भपात व बांझपन के बीच सीधा संबंध देखा गया है। DSV की रिपोर्ट ‘पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इंपैक्ट रिसर्च’ के पहले के शोध को भी आगे बढ़ाती है, जिसमें बताया गया था कि हम पहले ही पर्यावरण प्रदूषण के सुरक्षित स्तर को पार कर चुके हैं, खासकर प्लास्टिक के मामले में। रिपोर्ट यह भी बताती है कि वर्तमान रासायनिक जांच की पद्धतियां नाकाफी हैं। उदाहरण के लिए, कई एंडोक्राइन डिसरप्टिंग केमिकल्स (जो हॉर्मोन में हस्तक्षेप करते हैं), कम मात्रा में भी उतना ही नुकसान कर सकते हैं जितना अधिक मात्रा में — जबकि पारंपरिक सोच कहती है कि “जितनी कम मात्रा, उतना कम असर”। रिपोर्ट का उद्देश्य यह भी है कि पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य की बड़ी समस्याओं पर आधारित नवाचारों के लिए रास्ता खोला जा सके।
मैकफर्सन कहते हैं कि यह मुद्दा उपभोक्ताओं द्वारा भी हल किया जा सकता है — जैसे लोग जब सुरक्षित उत्पादों की मांग करेंगे, तो कंपनियां इन्हें बनाना शुरू कर देंगी। हर बार सामूहिक आंदोलन की जरूरत नहीं होती। व्यक्तिगत तौर पर, मैकफर्सन अब प्लास्टिक में खाना गर्म करने से बचते हैं, और लोहे की कढ़ाही में खाना पकाते हैं। वे कहते हैं कि ऑर्गेनिक खाना महंगा हो सकता है, लेकिन कम से कम फल-सब्ज़ियों को अच्छे से धोकर खाना जरूरी है। रिपोर्ट का एक और गंभीर पहलू यह भी है कि रासायनिक प्रदूषण पर मिलने वाला फंड जलवायु परिवर्तन की तुलना में बेहद कम है, जबकि इसे समान स्तर की प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
Updated on:
07 Aug 2025 05:46 pm
Published on:
07 Aug 2025 05:45 pm