राजसमंद. जिले की पवित्र भूमि पर, जहाँ हर शिला किसी प्राचीन गाथा की साक्षी लगती है, वहीं अरावली की शांत गोद में बसा है एक छोटा-सा मगर दिव्य तेज से भरपूर गांव सुन्दरचा। पालीवाल ब्राह्मणों की इस परंपरागत बस्ती ने न केवल सांस्कृतिक गरिमा को सहेजा है, बल्कि “सिद्धेश्वरमहादेव” के रूप में एक ऐसा आध्यात्मिक केंद्र भी विकसित किया है, जिसकी गूंज भक्तों के हृदय में पीढ़ियों से गूंज रही है।
इस दिव्य गाथा की शुरुआत होती है एक सादा सी बावड़ी से – जिसे कभी पनिहारों की बावड़ी कहा जाता था। यही जल स्रोत, गांव की जीवनधारा था। तब न कोई मंदिर था, न घंटियों की गूंज। वहीं एक दिन गांव के पुरखे लालूजी, जो बाहर से लौटे थे, प्यास से व्याकुल इस बावड़ी तक पहुंचे। उन्होंने जल ग्रहण किया, समीप की वाटिका में विश्राम किया। सांझ का वह पावन क्षण था जब प्रकृति भी थम सी गई थी। उसी क्षण उन्हें एक दिव्य अनुभूति हुई – मानो शिव स्वयं यहां विराजने को तत्पर हों। इस चमत्कारिक अनुभव के बाद, लालूजी ने यहां शिवलिंग की प्राण-प्रतिष्ठा करवाई। उसी दिन से यह स्थल आस्था का शिवधाम बन गया।
शुरुआत में गांव के लक्ष्मीनारायण मंदिर के पुजारी इस स्थान पर पूजा-अर्चना किया करते थे। परंतु यह सेवा एक दिन पूर्ण रूप से समर्पित हो गई लालूजी को, जिन्होंने 1955 से स्वयं को भोलेनाथ की भक्ति में समर्पित कर दिया। वो अविवाहित रहे, किंतु उनकी भक्ति इतनी प्रबल थी कि उनके भतीजे के संतानहीन जीवन में भी शिव की कृपा से संतान सुख प्राप्त हुआ। इस घटना को गांव आज भी एक "शिवकृपाचमत्कार" के रूप में मानता है।
1980 का वह साल, जब गायत्री परिवार द्वारा यहां एक विशाल पंचकुंडीय यज्ञ का आयोजन किया गया। उसी यज्ञ में पधारे एक गूढ़ तपस्वी – मौनी बाबा, जिन्होंने कभी वाणी न बोली थी, उन्होंने शिवलिंग की ओर देखकर अचानक वाणी में कहा कि यह कोई सामान्य लिंग नहीं... यह तो सिद्ध है। इसका नाम सिद्धेश्वर महादेव होगा। उस दिन के बाद यह नाम, इस पवित्र स्थल की पहचान बन गया।
मंदिर की यात्रा एक साधारण छतरीनुमा संरचना से शुरू हुई थी। लेकिन गांववासियों ने जब इसे अपना सामूहिक धर्म बना लिया, तब 2004 में एक भव्य शिखर युक्त मंदिर का निर्माण हुआ। यह अब केवल एक मंदिर नहीं, बल्कि सुन्दरचा गांव की आध्यात्मिक धरोहर और सांस्कृतिक पहचान बन चुका है।
श्रावण मास के हर सोमवार को यहां विशेष श्रृंगार होता है। भजन संध्याएं, महाआरती, रुद्राभिषेक और शिवभक्तों का उत्सवमयी सैलाब- यह दृश्य गांव को उजाले से भर देता है।
महाशिवरात्रि की सुबह 4 बजे से ही मंदिर प्रांगण में रुद्रपाठ, जलाभिषेक, बेलपत्र अर्पण, ध्वजा चढ़ाना, और दोपहर बाद विशाल भंडारा आयोजित होता है। जहां सैकड़ों भक्त प्रसाद पाते हैं।
श्रावण मास की एक अनूठी परंपरा और भी है-जब 200 से अधिक श्रद्धालु पुरुष और महिलाएं सिद्धेश्वर महादेव से परशुराम महादेव की ओर पैदल यात्रा पर निकलते हैं। पिछले 17 वर्षों से यह परंपरा चली आ रही है, जो आज श्रद्धालुजनों के लिए साधना, तपस्या और उत्सव का संगम बन चुकी है।
श्रावण मास में हर सोमवार रात्रि 8:15 बजे से विशेष आरती, सामूहिक भजन संध्या का आयोजन होता है। छोटे बच्चे से लेकर वृद्ध तक, इस संध्या में सम्मिलित होते हैं और मंदिर के आंगन में एक सामूहिक आध्यात्मिक ऊर्जा की लहर दौड़ जाती है।
राजसमंद के नक्शे में अब सुन्दरचा केवल एक गांव नहीं रहा। यह धार्मिक पर्यटन का एक उभरता केंद्र बन चुका है। आसपास के गांवों, शहरों नाथद्वारा, राजनगर, देवगढ़, रेलमगरा, चारभुजा तक से श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं।
मंदिर समिति अब इसे केवल पूजा स्थल नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित करना चाहती है। प्रस्तावित योजनाओं में शामिल हैं –
सिद्धेश्वर महादेव मंदिर की विशेषता उसकी सादगी में छुपी दिव्यता है। न तो यहां व्यावसायिकता है, न ही किसी प्रकार का दिखावा। यह मंदिर बताता है कि सच्ची आस्था वहीं फलती है जहां भक्त और भगवान के बीच कोई पर्दा न हो।
Published on:
05 Aug 2025 10:54 am