शादाब अहमद
नई दिल्ली। देश में नदियों के पानी के बंटवारे को लेकर कई राज्यों के बीच विवाद चल रहे हैं। इस बीच हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने हिमाचल से शुरू होने वाली नदियों के पानी से बिजली उत्पादन करने पर पंजाब व हरियाणा से वॉटर सेस वसूलने की मांग कर नई बहस शुरू कर दी है। हालांकि इससे पहले हिमाचल सरकार के विधानसभा में पास किए बिल को हिमाचल हाइकोर्ट खारिज कर चुकी है।
दरअसल, पानी पर उपकर को केन्द्र सरकार की ओर से असंवेधानिक बताने के बावजूद हिमाचल सरकार पंजाब व हरियाणा से हाइड्रो प्रोजेक्ट्स में उपयोग होने वाले पानी का उपकर लेना चाहती है। मुख्यमंत्री सुक्खू ने धर्मशाला में सीपीए भारत क्षेत्र के जोन-2 के सम्मेलन में इस मुद्दे को उठा दिया। इसके बाद एक बार फिर अंतरराज्यीय जल विवाद चर्चा में आ गए हैं। हिमाचल के प्रस्ताव को पंजाब व हरियाणा सरकार पहले ही खारिज कर चुकी है। हालांकि हिमाचल से पहले उत्तराखंड सरकार ने भी हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट्स के लिए पानी का उपयोग करने पर उपकर वसूलने का कानून बनाया हुआ है।
हिमाचल के मुख्यमंत्री सुक्खू ने कहा कि हिमाचल का बहता पानी हमारी सबसे बड़ी प्राकृतिक संपत्ति है। हमारा पानी बहता हुआ सोना है। लेकिन जिस पानी से हाइड्रो कंपनियां हर साल हज़ारों करोड़ रुपये का मुनाफ़ा कमा रही हैं, उसका वाजिब हिस्सा हिमाचल को अब तक नहीं मिला है। उन्होंने कहा कि हिमाचल का कुल बजट 52 हजार करोड़ है, जबकि हिमाचल के पानी से बिजली बनाने वाली सतलुज विद्युत निगम लिमिटेड 35 साल में 62 हजार करोड़ की कंपनी बन गई। सुक्खू ने कहा कि जब ताप बिजली घर लगता है तो कच्चे माल में खनन और परिवहन की लागत जोड़ी जाती है, लेकिन हाइड्रो पावर में कच्चा माल पानी होता है, जो निशुल्क मिलता है। पहाड़ों में उद्योग नहीं लग सकते हैं, ऐसे में हमारी संपत्ति पानी का पैसा हमें मिलना चाहिए। हमने यह मुद्दा प्रधानमंत्री और नीति आयोग के समक्ष पूरी दृढ़ता से रखा है। हिमाचल अपने संसाधनों पर अधिकार भी चाहता है और न्याय भी।
केन्द्र सरकार बिजली उत्पादन पर राज्यों की तरफ से लगाए सेस या ड्यूटी को लेकर कड़ी आपत्ति जता चुकी है। इस तरह के फैसले को गैरकानूनी और असंवैधानिक करार दिया गया है। केन्द्र का मानना है कि थर्मल, हाइड्रो, विंड, सोलर और न्यूक्लियर से उत्पादन किए जाने वाले बिजली पर राज्यों का टैक्स या ड्यूटी लगाना गैरकानूनी और असंवैधानिक है। यह अधिकार राज्यों का नहीं, बल्कि केन्द्र का है।
1. रावी और व्यास: राजस्थान, हरियाणा और पंजाब के बीच यह विवाद है। इसके लिए 2 अप्रेल 1986 को रावी और व्यास जल अभिकरण का गठन किया गया। अभिकरण ने अपनी रिपोर्ट और निर्णय 1987 में दिया था, लेकिन पार्टी राज्यों ने स्पष्टीकरण मांगा। करीब 40 साल बाद भी पानी के बंटवारे का मुद्दा अनसुलझा है। यह मामला अदालत में विचाराधीन है। वहीं अभिकरण का कार्यकाल 5 अगस्त 2025 तक बढ़ाया हुआ है।
2.महादयी जल विवाद: गोवा, कर्नाटक और महाराष्ट्र के बीच यह विवाद है। इसके लिए 16 नवंबर 2010 को अभिकरण का गठन किया गया। इसने 2018 में अपनी रिपोर्ट और निर्णय दे दिया, लेकिन केन्द्र सरकार और पार्टी राज्यों ने अभिकरण के समक्ष वाद दायर कर दिए। मामला फिलहाल विचाराधीन है। अभिकरण का कार्यकाल सरकार कई बार बढ़ा चुकी है।
3. कृष्णा जल विवाद: तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के बीच यह विवाद है। अप्रेल 2004 में बने इस अभिकरण ने अपनी रिपोर्ट और निर्णय 30 दिसंबर 2010 को दिया था। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने 16 सितंबर 2011 को अगले आदेश तक अभिकरण को उसकी रिपोर्ट और निर्णय को राजपत्र में प्रकाशित पर रोक लगा दी थी। मामला न्यायालय में विचाराधीन है और अभिकरण का कार्यकाल 31 जुलाई 2025 तक है।
4. महानदी जल विवाद: ओडिशा और छत्तीसगढ़ के बीच इस विवाद के लिए 2018 में अभिकरण का गठन किया गया। अभिकरण सुनवाई कर रहा है। इसका कार्यकाल 13 अप्रेल 2026 तक है।
Published on:
03 Jul 2025 09:36 am