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सोशल मीडिया का बहिष्कार नहीं, विवेकपूर्ण उपयोग हो

नृपेन्द्र अभिषेक नृप

जयपुर

Neeru Yadav

Aug 03, 2025

डिजिटल क्रांति ने जिस तीव्रता से हमारे समाज को बदला है, उसने जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है। परंतु सबसे गहरा प्रभाव उस पीढ़ी पर पड़ा है, जिसे आधुनिक समाज ‘जनरेशन जेड’ कहता है, अर्थात वे युवा जो 1997 से 2010 के बीच जन्मे और जिन्होंने अपनी आंखें खोलते ही स्क्रीन की रोशनी में दुनिया देखी। यह वही पीढ़ी है, जिसने बचपन में खिलौनों से पहले मोबाइल फोन देखा, किताबों से पहले टैबलेट पर अंगुलियां चलाईं और खेल के मैदानों से पहले वर्चुअल चैट रूम में दोस्त बनाए।
यूरोपीय आयोग की हालिया रिपोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि जनरेशन जेड वह पहली पीढ़ी है, जिसने किशोरावस्था में ही सोशल मीडिया को जीवन का अभिन्न अंग बना लिया। जहां पूर्ववर्ती पीढिय़ों ने तकनीक को उपकरण के रूप में अपनाया, वहीं इस पीढ़ी ने तकनीक को जीवन का स्वरूप बना लिया। किंतु यही घुला-मिला संबंध उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए भारी पडऩे लगा है। सोशल मीडिया प्लेटफॉम्र्स का अंधाधुंध उपयोग इस पीढ़ी के युवा मस्तिष्क को एक अनदेखे दबाव में डाल रहा है। लगातार स्क्रीन पर चिपके रहने की आदत, फियर ऑफ मिसिंग आउट (फोमो), लाइक्स और फॉलोअर्स की होड़ ने उन्हें भीतर से थकान देकर खोखला कर दिया है। कोविड-19 महामारी ने इस स्थिति को और भी भयावह रूप दे दिया। जब पूरी दुनिया लॉकडाउन की बेडिय़ों में जकड़ी थी, तब शारीरिक दूरी को पाटने का एकमात्र माध्यम यही सोशल मीडिया और डिजिटल मंच थे। शिक्षा से लेकर मनोरंजन और पारिवारिक संवाद तक, सबकुछ ऑनलाइन हो गया। इस अनिवार्य डिजिटल जीवनशैली ने किशोरों और युवाओं को उस आभासी संसार में धकेल दिया, जहां वास्तविक मानवीय स्पर्श, आत्मीयता और संवाद का स्थान ‘इमोजी’ और ‘वीडियो कॉल’ ने ले लिया। परिणामस्वरूप, मानसिक थकान, चिड़चिड़ापन और अवसाद जैसी स्थितियां बढ़ती चली गईं। आज की युवा पीढ़ी पर दोहरे दबाव का बोझ है, एक ओर शिक्षा और कॅरियर में उत्कृष्टता की निरंतर प्रतिस्पर्धा, दूसरी ओर सोशल मीडिया पर अपनी उपस्थिति बनाए रखने की अनकही बाध्यता। दिनभर के समय का बड़ा हिस्सा इंस्टाग्राम, स्नैपचैट या टिकटॉक पर बिताने के बावजूद उनके मन में यह भय बना रहता है कि वे किसी महत्त्वपूर्ण चीज से वंचित न रह जाएं। यही भय उन्हें स्क्रीन से बांधे रखता है और मानसिक शांति को छीन लेता है।
सोशल मीडिया की यह दुनिया वास्तविकता से अधिक काल्पनिक है। यहां दिखने वाले जीवन के चमकते दृश्य अक्सर निर्मित और सजाए हुए होते हैं, जिनका वास्तविक जीवन से कोई सीधा संबंध नहीं होता। किंतु युवा मन इन दृश्यों को सच मान बैठता है और अपनी जिंदगी को उससे कमतर आंकने लगता है। यह असंतोष उन्हें निरंतर बेचैन करता है, आत्मविश्वास को कमजोर करता है और कभी-कभी आत्मघाती विचारों तक पहुंचा देता है।
जनरेशन जेड के लिए यह पीड़ा केवल मानसिक स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है, बल्कि उनकी सामाजिकता और व्यक्तित्व विकास पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। डिजिटल स्क्रीन पर बंधे हुए ये युवा धीरे-धीरे वास्तविक संवाद और संवेदनाओं से दूर होते जा रहे हैं। पारिवारिक बातचीत, मित्रता की आत्मीयता और समाज में सक्रिय भागीदारी कम होती जा रही है। परिणामस्वरूप, यह पीढ़ी अकेलेपन का बोझ ढो रही है, भले ही वर्चुअल दुनिया में उनके हजारों मित्र हों।
इसके बावजूद, यह कहना भी अनुचित होगा कि सोशल मीडिया केवल नकारात्मक प्रभाव ही डालता है। यह नई पीढ़ी को अद्वितीय अवसर भी देता है- ज्ञान अर्जन, वैश्विक संवाद, नई पहचानों का निर्माण और अपने विचारों को व्यापक मंच पर रखने का अवसर। यह पीढ़ी तकनीकी दृष्टि से सबसे अधिक सशक्त और नवाचार में अग्रणी है। किंतु समस्या तब उत्पन्न होती है, जब यह शक्ति असंतुलित होकर मानसिक स्वास्थ्य पर आघात करती है। इसके समाधान की राह भी सहज नहीं है। यह न तो केवल माता-पिता की जिम्मेदारी है, न ही केवल सरकार या स्कूलों की। यह एक सामूहिक सामाजिक दायित्व है कि हम इस डिजिटल पीढ़ी को आत्मनियंत्रण और संतुलन की शिक्षा दें। विभिन्न देशों में पहले ही इस दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं, विशेषकर किशोरों के लिए सोशल मीडिया उपयोग पर समय-सीमा निर्धारित करना, नशे की तरह लत से बचाने के लिए नियामक उपाय करना और डिजिटल डिटॉक्स की आदत विकसित करना। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण है सोशल मीडिया का बहिष्कार नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण उपयोग। इसे मनोरंजन और संवाद तक सीमित रखते हुए वास्तविक जीवन में प्रत्यक्ष अनुभवों को महत्व देना आवश्यक है। स्वस्थ संवाद, रचनात्मक शौक, खेलकूद, और मानवीय रिश्तों में समय निवेश करना इस अदृश्य बोझ को कम कर सकता है।
अब जनरेशन जेड का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि वे इस डिजिटल लहर में बहकर अपनी मानसिक शांति खोते हैं या तकनीक को साधन बनाकर जीवन की सार्थकता को बनाए रखते हैं। सोशल मीडिया का विवेकपूर्ण संतुलन ही वह कुंजी है, जो इस पीढ़ी को थकान, अवसाद और तनाव से मुक्त कर वास्तविक आत्मविश्वास और खुशहाली की ओर ले जा सकती है। यह समय है जब समाज, अभिभावक और स्वयं युवा, तीनों मिलकर इस संतुलन को स्थापित करें, ताकि आने वाली पीढिय़ां डिजिटल युग में भी मानवता की ऊष्मा को संजोए रख सकें।