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पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख – आगे बढ़ने से पहले

शहरों के व्यवस्थित विकास के उद्देश्य से सरकारें मास्टर प्लान बनाती हैं। इन मास्टर प्लानों में व्यवस्थित बसावट, हरित पट्टिकाओं,संस्थानिक क्षेत्रों, औद्योगिक व व्यावसायिक क्षेत्रों इत्यादि के उचित अनुपात का ध्यान रखा जाता है।

editor-in-chief of Patrika Group Gulab Kothari
पत्रिका समूह के प्रधान सम्पादक गुलाब कोठारी (फोटो: पत्रिका)

गुलाब कोठारी

शहरों के व्यवस्थित विकास के उद्देश्य से सरकारें मास्टर प्लान बनाती हैं। इन मास्टर प्लानों में व्यवस्थित बसावट, हरित पट्टिकाओं,संस्थानिक क्षेत्रों, औद्योगिक व व्यावसायिक क्षेत्रों इत्यादि के उचित अनुपात का ध्यान रखा जाता है। शहरों के दीर्घकालीन सुव्यवस्थित विकास के लिए आवश्यक है कि इन मास्टर प्लानों का कड़ाई से पालन हो। लेकिन ज्यादातर शहरों में ये प्लान भूमाफिया, राजनेताओं और अफसरों की लालच के भेंट चढ़ जाते हैं। जयपुर हो, भोपाल हो या इन्दौर- हर शहर के मास्टर प्लानों के साथ यही त्रासदी हो रही है। ऐसा इसलिए होता है कि किसी शहर के नए मास्टर प्लान पर काम शुरू होने से पहले, पिछले मास्टर प्लान के क्रियान्वयन की समीक्षा कर उससे खिलवाड़ करने वालों को दण्डित नहीं किया जाता।

जयपुर के मौजूदा मास्टर प्लान-2025 की मियाद आने वाले सितम्बर में पूरी होने वाली है। इसलिए नए मास्टर प्लान पर काम होना स्वाभाविक है। दो दिन पहले ही मेरी राजस्थान के मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा से मास्टर प्लान को लेकर चर्चा हुई तो मेरा यही कहना था कि नए मास्टर प्लान को लागू करने से पहले यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि पुराने में उल्लेखित बातों का क्रियान्वयन हो चुका है। खुशी है कि मुख्यमंत्री ने भी इस बात को माना कि वे पहले तय करेंगे कि पुराने मास्टर प्लान की पालना हो। मुख्यमंत्री जी से चर्चा के दौरान मैंने यह भी कहा कि शहर के भविष्य का विकास आकाश की ओर (वर्टिकल) यानी बहुमंजिला इमारतों के रूप में ही किया जाना चाहिए। अन्यथा बड़ी आबादी के लिए आवास सुविधा का इंतजाम करना भारी हो जाएगा। मुख्यमंत्री जी ने इस बात से भी सहमति जताते हुए कहा कि वे इसका क्रियान्वयन सुनिश्चित कराएंगे।

राजस्थान का अनुभव यह है कि पिछली सरकारों ने पिछले मास्टर प्लानों का क्रियान्वयन गंभीरता से किया ही नहीं। जो थोड़ी-बहुत सख्ती की गई वह अदालतों की फटकार की वजह से की गई। सरकारें आती हैं और चली जाती हैं लेकिन मास्टर प्लान का धणीधोरी कौन है इसका पता तक नहीं चलता। कोर्ट कहता है कि सुनियोजित विकास के लिए सुविधा क्षेत्र बनाए रखना जरूरी है। लेकिन हमारे यहां नियमों की अपने तरीके से व्याख्या कर, जनहित का हवाला देते हुए किस तरह से सुविधा क्षेत्रों को समाप्त कर दिया गया है यह सबको पता है। आज राजधानी जयपुर ही नहीं, देश के तमाम बड़े शहरों का एक-सा हाल है। शहरों में आबादी बढ़ी तो शहरों की सीमाओं का भी विस्तार हुआ लेकिन जहां तक विस्तार हुआ वहां न तो पानी-बिजली की पर्याप्त सुविधा पहुंच पा रही और न ही आवागमन के साधन उपलब्ध हो रहे।


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वर्ष 2004 में शहरी मास्टर प्लान को लेकर मैंने राजस्थान उच्च न्यायालय के माननीय मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखा तो उसे याचिका मानते हुए सुनवाई की गई। जब फैसला आया तो उसमें भी मुख्य बिन्दु यही था कि मास्टर प्लान को सख्ती से लागू किया जाए। लेकिन सरकारी भूमि पर अतिक्रमण इतने हो गए कि हमारे मास्टर प्लान न जाने कहां हवा हो गए। सरकार को खुद को पता नहीं होगा कि उसकी कितनी भूमि पर अतिक्रमण हो चुका है। कोर्ट की फटकार लगती है तो अतिक्रमणों को नियमित करने की गलियां निकालने के अलावा शायद ही कोई काम होता हो। सारा काम मिलीभगत से होता है। अब तो छोटे-छोटे शहरों के मास्टर प्लान बनाने की बातें होने लगी है। लेकिन हरियाली के लिए छोड़े गए इलाके भी सुरक्षित नहीं रह पाएं, सड़कें इतनी संकरी हो जाए कि दो चौपहिया वाहन एक साथ नहीं निकल पाएं और वाहन भी इतने हो जाएं कि पार्किंग भी उपलब्ध नहीं हो तो किस बात का मास्टर प्लान?

राजस्थान हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने कई बार कहा है कि प्राकृतिक संसाधनों, वनों, अभयारण्यों आदि को शहरी विकास से मुक्त रखना चाहिए। सीधे तौर पर हरित क्षेत्र से छेड़छाड़ न करने के निर्देश हैं। यहां तो शहर भी जंगलों की सीमा तक पसरने लगे हैं। किसी भी मास्टर प्लान में सबसे बड़ी जरूरत इस बात की है कि नियोजित तरीके से विकास हो। खुली हुई सड़कें हों तो पर्याप्त हरियाली हो, बच्चों के लिए खेल मैदान हो तो लोगों के लिए ऑक्सीजोन भी उपलब्ध हों। लेकिन कॉलोनाइजर्स तो सरकारी तंत्र से मिलीभगत कर गैरकानूनी कॉलोनियां बसाने में जुटे हैं और बहुमंजिला इमारतों में पार्किंग की सुविधा तक नहीं है। वर्षाजल निकास की व्यवस्था तो जैसे चौपट हो चली है। सरकारें कोर्ट में सेक्टर प्लान की बातें तो खूब बताकर आती हैं पर व्यवहार में कुछ और ही दिखाई पड़ता है। भूमि के उपयोग को भी बदलना मामूली हो चला है।

जयपुर में भी पिछले वर्षों में शहरी सीमा का खूब विस्तार हुआ है। अब मास्टर प्लान-२०४७ को ध्यान में रखते हुए सीमा विस्तार की तैयारियां भी हो रही है। सीमाएं बढ़ाने से एक बात जरूर होगी कि जमीनों के भाव गांवों में भी आसमान छूने लगेंगे लेकिन पहले से घोषित मास्टर प्लान की बातें ही पूरी नहीं हो सकीं तो विस्तारित इलाकों में जनसुविधाएं कैसे जुटाई जा सकेगी यह भी बड़ा सवाल है। कहा यह जा रहा है कि आने वाले समय में ६०० गांव जेडीए सीमा में और शामिल हो जाएंगे। इस तरह से जेडीए रीजन में १३०० से अधिक गांव शामिल हो जाएंगे। अभी तो राजधानी में दो नगर निगम होने के बावजूद हालत यह है कि शहर के बाहरी इलाकों के वार्डों की तो महिनों तक सफाई व्यवस्था चौपट रहती है।


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शहरी विकास में परिवहन साधनों की आम आदमी तक पहुंच सबसे बड़ी जरूरत है। खुशी है कि राजस्थान सरकार मेट्रो के दूसरे चरण के तहत इस दिशा में काम कर रही है। सेटेलाइट टाउन की बातें भी खूब होती हैं लेकिन इन पर काम होता दिखता नहीं। हम स्मार्ट सिटी बनाने की कितनी ही बातें कर लें लेकिन आम आदमी की सुविधा की परवाह किए बिना विकास की तरफ दौड़ लगाना शुरू किया तो उल्टे मुंह गिरना ही तय है। सरकारें तो अपना काम करेंगी लेकिन जिम्मेदार नागरिक के रूप में हमें भी निगाह रखनी हैं। नौकरशाही को जब यह लग जाएगा कि उनके काम पर नजर रखी जा रही है तो अदालती फैसले लागू होने में भी देरी नहीं लगने वाली। हमारे मुख्यमंत्री जी भी पीछे पड़ जाएं तो पुराने मास्टर प्लान का क्रियान्वयन और आने वाले मास्टर प्लान की बेहतर तैयारी हो सकेगी। जरूरत इच्छाशक्ति की है।