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पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख – दु:खद पदत्याग

भारत के उपराष्ट्रपति पद से जगदीप धनखड़ का त्यागपत्र चौंकाने वाला है। किसी उपराष्ट्रपति का कार्यकाल के बीच में ही पद छोड़ देना लोकतंत्र के लिए तो दु:खद है ही, राजस्थान के लिए पीड़ादायक इस अर्थ में भी है कि वे इतने बड़े पद पर रहकर राजस्थान का मान-सम्मान ही बढ़ा रहे थे।

editor-in-chief of Patrika Group Gulab Kothari
पत्रिका समूह के प्रधान सम्पादक गुलाब कोठारी (फोटो: पत्रिका)

गुलाब कोठारी

भारत के उपराष्ट्रपति पद से जगदीप धनखड़ का त्यागपत्र चौंकाने वाला है। किसी उपराष्ट्रपति का कार्यकाल के बीच में ही पद छोड़ देना लोकतंत्र के लिए तो दु:खद है ही, राजस्थान के लिए पीड़ादायक इस अर्थ में भी है कि वे इतने बड़े पद पर रहकर राजस्थान का मान-सम्मान ही बढ़ा रहे थे। राजस्थान के लिए तो दोगुना गौरव इस बात का भी है कि उसने देश को दो-दो उपराष्ट्रपति दिए। दोनों ही ग्रामीण परिवेश से आए और शिखर पर पहुंचकर भी धरती से जुड़े रहे। दोनों ही संसदीय परम्पराओं के गहन जानकार रहे। राजस्थान से आने वाले पहले उपराष्ट्रपति भैंरोसिंह शेखावत और दूसरे जगदीप धनखड़ ने अपने कार्यकाल में राज्यसभा के सभापति का दायित्व अपनी-अपनी शैली में जिस तरह से निभाया वह सबके सामने है।

यह भी संयोग ही है कि उपराष्ट्रपति के पद तक पहुंची दोनों विभूतियों का संबंध राजस्थान के शेखावाटी अंचल से रहा है। शेखावत, सीकर जिले के खाचरियावास गांव से निकलकर इस शीर्ष पद तक पहुंचे तो धनखड़ भी शेखावाटी के ही झुंझुनूं जिले के किठाना गांव में जन्मे और विधि और संसदीय परम्पराओं के जानकार के रूप में देश के उपराष्ट्रपति पद तक पहुंचे।

पिछले साल दिसंबर में विपक्षी दलों के गठबंधन ‘इंडिया’ ने उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया था। लेकिन आज प्रतिपक्ष भी जब धनखड़ के इस्तीफे पर पुनर्विचार की मांग करता है तो शेखावत की तरह धनखड़ की भी राजनीति में ‘अजातशत्रु’ बने रहने की छवि उभर कर आती है। जिस तरह से उन्होंने संसदीय मर्यादाओं को ध्यान में रखकर राज्यसभा के सभापति की भूमिका निभाई उसकी प्रतिपक्ष भी सराहना करता है।

उपराष्ट्रपति ने स्वास्थ्य कारणों से त्यागपत्र देने की बात कही है। यह सही भी है कि पिछले दिनों वे उत्तराखंड में एक कार्यक्रम के दौरान ही अस्वस्थ हुए थे। वे एम्स में भी उपचार के लिए भर्ती रहे। लेकिन अस्वस्थता के बावजूद वे सक्रिय बने हुए थे। कई दूसरी अटकलें भी लगाई जा रहीं हैं। सबसे ज्यादा अटकलें उनकी स्पष्टवादिता को लेकर ही है। किसानों की मांगों को लेकर सीधे सरकार से सवाल करने की बात हो या फिर अदालतों के क्षेत्राधिकार को लेकर उठाए गए सवाल। एक न्यायाधीश के सरकारी आवास पर जले नोट मिलने पर हुई सुप्रीम कोर्ट की आंतरिक जांच पर उनके सवाल हों या लोकतंत्र को खत्म करने वालों को देशद्रोहियों के कठघरे में खड़े होने देने जैसी टिप्पणियां। ये सब बयान धनखड़ को लगातार विवाद में रखने वाले भी सिद्ध हुए। पश्चिमी बंगाल के राज्यपाल रहते हुए भी उनका मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से खूब टकराव हुआ।

अपने कार्यकाल के दौरान धनखड़ सदन में संसदीय मर्यादा बनाए रखने के सदैव पक्षधर रहे। मानसून सत्र की शुरुआत में भी उन्होंने सभी दलों से अपेक्षा की थी कि वे सदन की गरिमा और संवाद बनाए रखेंगे। समय-समय पर उन्होंने इस बात पर भी चिंता व्यक्त की कि सदनों में गंभीर चर्चा कम होने लगी है और सांसद तैयारी के साथ नहीं आते।

विधान की मर्यादा की रक्षा करने वाली यह छवि उनकी राज्यसभा के सभापति के रूप में भी नजर आई। वे इस बात के पक्षधर भी रहे कि मीडिया का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए। मीडिया एक पंजीकृत मान्यता प्राप्त या गैर-मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल नहीं हो सकता है। मीडिया को सभी सावधानियां बरतनी चाहिए ताकि वह पक्षपातपूर्ण राजनीति के लिए युद्ध का मैदान न बन जाए। सच भी है मीडिया जगत अपनी अंतरात्मा का ख्याल रखेगा तब जाकर वह देश की अंतरात्मा का रक्षक बनकर उभरेगा।

एक बार धनखड़ ने खुद उल्लेख किया कि उन्होंने संसदीय कार्य मंत्री को हर एक सांसद को वेदों की प्रतियां उपलब्ध कराने का सुझाव भी दिया था। साथ ही यह भी कहा कि सांसदों के सिरहाने वेद होने से मानवता का काफी कल्याण होगा। जो मनुष्य वेदों का स्वाद चखेंगे, वे अपनी आत्मा से बोलेंगे, न कि मस्तिष्क या दिल से।

भले ही उपराष्ट्रपति का संवैधानिक पद राजनीति से ऊपर था। लेकिन सच यह भी है कि राजनीति के साथ समन्वय हर युग की आवश्यकता है। एक प्रखर अधिवक्ता से लेकर उपराष्ट्रपति पद तक की दीर्घयात्रा में धनखड़ ने राजस्थान का नाम और मान हमेशा आगे बढ़ाया। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे प्रखर विधि और संविधानवेत्ता के रूप में सरकार के सलाहकार की भूमिका में बने रहेंगे।