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शरीर ही ब्रह्माण्ड – दापत्य भाव का कर्म विधान

पुरुष हृदय में पत्नी का ब्रह्मांश भी रहता है और स्वयं का भी। दोनों का प्रारब्ध साथ हो जाता है, कन्यादान के बाद। देह दोनों की प्रकृति रूप पृथक्-पृथक् है। प्रारब्ध कर्मों की कामना हृदयस्थ मन में उठती है।

फोटो: पत्रिका

जीवन में सब कुछ अस्थायी होते हुए भी स्थायी प्रतीत होता है। एक फिल्मी गीत है—न कोई था, न कोई है... जीवन का सबसे बड़ा सच यही है। हम मिट्टी के मकान हैं, जैसे बरसात में बच्चे बनाते हैं- ढहा देते हैं। माया हमें बनाती रहती है, ढहाती रहती है। जो मायी है वह नए मकान में आकर रहता है, मकान ढहते ही विदा हो जाता है। मकान बदल लेता है। पुराना मकान भी पुन: मिट्टी हो जाता है। हम नए मकान को समझे बिना ही इसमें रहकर चले जाते हैं। क्या-क्या विशेषताएं हैं इस मकान की, क्या-क्या संभावित कर्म किए जा सकते हैं, कैसे इसे व्यवस्थित रख सकते हैं, मौसम के थपेड़ों से बचा सकते हैं। न इसके बनने का पता होता है, न ही गिरने की चेतना।

शास्त्र कहते हैं—‘ब्रह्म सत्यं, जगन्नमिथ्या’- जो आज है, कल नहीं रहेगा। जगत के सभी प्राणी इस श्रेणी में ही आते हैं। कैसे? ब्रह्म शब्द का अर्थ ही बृंहण है—निरन्तर बढ़ने वाला, फैलने वाला। उसका स्वयं का संकल्प भी है—एकोऽहं बहुस्याम्। यदि सब बढ़ते ही गए तो इस त्रिलोकी में रहने को स्थान ही नहीं बचेगा। अत: प्राणी की उपयोगिता के अनुरूप उसकी आयु भी तय है। संतुलन बना रहता है। रक्षा करने वाले देवता 33 हैं और उजाड़ने वाले असुर 99 हैं, जिन्हें हम चारों ओर देख सकते हैं। यही स्थूल जगत का देवासुर संग्राम है।

निर्माण और ध्वंस दोनों एक ही बिन्दु पर स्थित हैं। बच्चे दोनों में समान रूप से आनन्द लेते हैं। यह समत्व ही योग है, ब्राह्मी स्थिति है। शाश्वत और नश्वर दोनों तत्त्व साथ हैं। अपरिवर्तनीय अमृत तत्त्व एवं परिवर्तनीय मृत्यु तत्त्व दोनों आत्मा (अहं) के दो विवर्त हैं। दोनों में अन्तरान्तरी भाव है। अत: अद्वैत भाव है—एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म। ब्रह्म और माया को ही रस और बल (मायाबल) कहते हैं। माया का यह शब्द-तन्मात्रा रूप ससीम गुण भूतों का सृजन करता हुआ असीम को अपने मापदण्ड से सीमित कर देता हैं। यही मायाबल है। परात्पर में अपने सहज धर्म से सीमा को बनाने वाले मायाबल का उदय होता है। असीम परात्पर में भी बल तो था ही क्योंकि रस और बल अविनाभूत तत्त्व हैं। सदैव साथ रहते हैं। यहां एक केन्द्र बल का अभाव था। बलों का ग्रन्थिबन्धन संभव नहीं था। अत: सृष्टि कर्म संभव नहीं था। केन्द्र बन जाने पर बलों की ग्रन्थिबन्धन प्रवृत्ति के कारण सृष्टि भाव बन जाता है। माया बल भी उदित होने से पूर्व अव्यक्त था। व्यक्त होते ही उसने असीम परात्पर को सीमित कर दिया। सीमाभाव में आया हुआ परात्पर ही अव्यय कहलाता है। अर्थात् माया बल ही ब्रह्म की साक्षी में स्वग्रन्थि बन्धनों के द्वारा विश्व रूप बन जाता है। इस साक्षी मात्रानुबन्ध से भले ही कह दें कि माया ने सीमित कर दिया किन्तु सहज रूप से अद्वैत भाव अक्षुण्ण है इस सूक्ष्म विवेक से।

ब्रह्म सीमित नहीं हो सकता। सृष्टि का प्रथम सत्य पुरुष अव्यय है। अव्यय की दो प्रकृतियां परा और अपरा ही सृष्टि कर्म में प्रवृत्त होती है। सृष्टि में उसका साक्षी भाव रहता है। गीता में अव्यय कृष्ण अपनी परा और अपरा प्रकृतियों को बताते हुए कहते हैं कि —

भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।

अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ (गीता 7/4)

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।

जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥ (गीता 7/5)

-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार ये सब मेरी अपरा प्रकृति हैं किन्तु हे महाबाहु अर्जुन! इनसे अतिरिक्त मेरी परा शक्ति है। यह जीव शक्ति है जिसमें देहधारी आत्माएं (जीवन रूप) समिलित हैं जो इस संसार के जीवन का आधार हैं।

रस-बल ही स्थूल सृष्टि में वृषा-योषा हैं। 84 लाख योनियों में क्योंकि यहीं एकमात्र कर्मयोनि है तथा प्रजापति की प्रतिकृति है—पुरुषो वै प्रजापतिर्नेदिष्ठम् (शत. 2/5/1/1)। मानव रूप पुरुष और स्त्री को समझने की आवश्यकता है। पुरुष ब्रह्म का प्रतिनिधि तत्त्व है, स्त्री माया का प्रतिनिधितत्त्व है। ब्रह्म की सृष्टि अमृत भाव की है, पुरुष सृष्टि है-अव्यय पुरुष की है। दूसरी सृष्टि ब्रह्म सत्य रूप की है। माया के कारण परात्पर ब्रह्म के अमृत-ब्रह्म-शुक्र तीन स्वरूप बन जाते हैं। ये क्रमश: हमारे कारण-सूक्ष्म-स्थूल शरीर रूप में कार्य करते हैं।

कारण शरीर अव्यय पुरुष की संस्था है, आलबन है। यहां किसी प्रकार की क्रिया नहीं है। यह गीता कृष्ण की प्रतिष्ठा है। इसमें संचित कर्म होते हैं। प्रारब्ध सूक्ष्म शरीर में निमित्त कारण है। सूक्ष्म देह में जीवात्मा का हृदय है, श्वोवसीयस मन है। पुरुष हृदय में पत्नी का ब्रह्मांश भी रहता है और स्वयं का भी। दोनों का प्रारब्ध साथ हो जाता है, कन्यादान के बाद। देह दोनों की प्रकृति रूप पृथक्-पृथक् है। प्रारब्ध कर्मों की कामना हृदयस्थ मन में उठती है। प्राणमय कोष के माध्यम से सर्वेन्द्रिय मन में पहुंच जाती है। शरीर को क्रियामय कर्म करने की प्रेरणा होती है। यह कामना अपरिवर्तनीय है एवं इस कामना का फल भी पूर्व निर्धारित ही होता है। कामना यदि पुरुष मन में है, तो कर्म भी पुरुष शरीर ही करेगा। कामना यदि स्त्री मन की है तो कर्म भी स्त्री देह के माध्यम से ही होगा।

इसी प्रकार पुरुष के निजी कर्म पुरुष देह से होते हैं, स्त्री के निजी कर्म स्त्री देह से। इनकी कामना भी सर्वेन्द्रिय मन में ही, इन्द्रियों के माध्यम से होती हैं। ये जीव की नई कामनाएं होती हैं। इनके अपने नए फल संचित कर्मों में जुड़ जाते हैं। कुछ और भी कर्म होते हैं जो नित्य, नियोजित, स्वाभाव-जनित अथवा वातावरण के प्रभाव से अचानक किए जाते हैं। इनमें स्थूल कर्म निजी ही रहते हैं, किन्तु सूक्ष्म प्राणात्मक-भावनात्मक कर्म तो हृदयस्थ जीवभाव को प्रभावित करते हैं।

कर्म तत्कालीन भी होते हैं और पुरुषार्थ कर्म के रूप में, वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुरूप तथा शुद्ध भक्तियोग से प्रेरित भी होते हैं। स्त्री के सूक्ष्म-भावनात्मक कर्म पुरुष हृदय में पुरुष जीवात्मा में आहुत हो जाते हैं। कन्यादान के दौरान लड़की का पिता लड़की के ब्रह्म अंश को भी लड़के (दूल्हे) के अंश के साथ प्रतिष्ठित कर देता है। स्त्री नई सन्तान पैदा नहीं कर सकती। पुरुष ही बीजी है। स्त्री का बीजात्मा पुरुष बीज में ही आहुत रहता है। स्त्री-पुरुष दोनों की कर्म समष्टि ही दापत्य पुरुषार्थ का स्वरूप बनता है। स्त्री के स्वयं के पुरुषार्थ कर्म अलग नहीं होते, न मोक्ष ही अलग होता।

प्रकृत में स्त्री सौया है, पुरुष में आहुत रहती है। व्यवहार में स्त्री संकल्पवान-आग्नेय तत्त्व है। पुरुष का भोग करती है। सूक्ष्म शरीर में दोनों युग्म रूप हैं। पुरुष हृदय में अव्यय पुरुष केन्द्रित है, जो कि सूक्ष्म रूप में परा प्रकृति अथवा अक्षर प्रकृति से एकाकार रहता है। दोनों के सूक्ष्म कर्म संयुक्त ही नजर आते हैं। स्त्री के सभी पूजा-अनुष्ठान-प्रार्थनाएं पुरुष की लबी आयु के लिए होते हैं। सांसारिक दृष्टि से सुहागन स्त्री का अपना महत्व है। पति की मृत्यु का अर्थ वैज्ञानिक दृष्टि से कुछ और होता है।

मृत्यु काल में स्त्री का ब्रह्मांश भी पति के जीवात्मा के साथ विदा हो जाता है। विधवा स्त्री का आग्नेय आधार खो जाता है। वह एक प्राणी शरीर मात्र रह जाती है। शरीर ही उसके जीने का आधार रह जाता है। उसका रक्षक भी नहीं रहता। पराधीन अवस्था किसी के लिए भी श्रेयस्कर नहीं होती। तपस्वी स्त्रियां देहातीत होकर जी सकती हैं। जीते जी शरीर छोड़ देती हैं।

क्रमश: gulabkothari@epatrika.com