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बचपन अब एक दौर नहीं, बल्कि एक दौड़ है

डॉ. शिवम भारद्वाज

जयपुर

Neeru Yadav

Jul 19, 2025

बचपन अब एक स्मृति होता जा रहा है-समय से पहले ही बीतता हुआ। बच्चों की सुबह अलार्म पर खुलती हैं, दिन ट्यूशन और टेस्ट के बीच सिमट जाते हैं, शामें स्क्रीन पर गुजरती हैं और रातें होमवर्क और ट्यूशन वर्क के नीचे दब जाती हैं। यह दिनचर्या अब अपवाद नहीं रही-यह सामान्य हो चुकी है। एक उम्र जो पहले खेलने, उलझने और धीरे-धीरे बनने के लिए होती थी, अब वहां बनने से पहले ही तय कर लिया जाता है कि क्या बनना है। उस तयशुदा मंजिल तक पहुंचने की दौड़ बहुत पहले शुरू हो जाती है-कभी होश में, कभी अनजाने में।
आज यह मान लेना सहज हो गया है कि बच्चे ‘सही’ रास्ते पर हैं-वे पढ़ाई कर रहे हैं, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में हैं, भाषाएं और स्किल्स सीख रहे हैं। लेकिन इस पूरे परिदृश्य में एक सवाल लगातार अनुत्तरित रह जाता है: क्या वे कुछ महसूस भी कर पा रहे हैं? क्या उनके पास यह जानने की जगह बची है कि उन्हें क्या पसंद है, किस बात से डर लगता है, किस दिशा में वे स्वयं को देखना चाहते हैं? या फिर यह मान लिया गया है कि नंबर लाना, दूसरों से बेहतर होना और जल्दी किसी स्थिति तक पहुंचना ही काफी है?
इस चुप्पी में जो सबसे पहले दबता है, वह है- बच्चों का स्वयं से परिचय। वे विफलता से डरते हैं, पर कह नहीं पाते। वे उम्र से बड़ी बातें करने लगे हैं, लेकिन अपनी उम्र के छोटे-छोटे सुख भूल चुके हैं। धीरे-धीरे उनके भीतर यह भाव बनने लगता है कि अगर वे थोड़ा भी पीछे रह गए, तो घर में उनका महत्त्व कम हो जाएगा। यह भावना कोई कल्पना नहीं, बल्कि उन असंख्य सूक्ष्म संकेतों से उपजती है, जो उन्हें रोज मिलते हैं-कभी तुलना से, कभी प्रशंसा की शर्तों से और कई बार सिर्फ हमारी चुप्पी से। यह चुप्पी सिर्फ घर की नहीं है। बच्चों को कई बार स्कूल भी एक प्रोजेक्ट साइट सरीखे लगते हैं जहां सीखने की जगह तो है ही, लेकिन साथ ही यहां भी प्रदर्शन के मायने ज्यादा हैं। शिक्षक भी उसी दबाव के शिकार हैं, जो हर वक्त रैंकिंग, रिपोर्ट और रिजल्ट से बंधा है। कोचिंग संस्थानों का विस्तार किसी से छिपा नहीं है। एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार अपनी आय का बड़ा हिस्सा अपने बच्चों से जुड़े इन्हीं ‘शैक्षणिक निवेश’ में लगा देता है-इस उम्मीद में कि शायद यह सफलता की गारंटी बन जाए। ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति और जटिल है, जहां संसाधनों की कमी का बोझ बच्चे अपने आत्मविश्वास पर उठाते हैं। बच्चों के लिए विफलता सिर्फ एक नतीजा नहीं, पहचान का संकट बन जाती है। माता-पिता इस व्यवस्था के न तो निर्माता हैं, न ही उसका समाधान। वे स्वयं इसमें उलझे हुए सहयात्री हैं। वे अपने बच्चों के लिए वह सब कुछ चाहते हैं, जो उसके सुखद और सुरक्षित भविष्य को सुनिश्चित करता हो, वह सबकुछ भी जो शायद कभी उनके पास नहीं हो पाया, या जो उनसे किन्हीं कारणों से खो अथवा छिन गया। लेकिन यह समझना जरूरी है कि इरादों की यह पवित्रता भी कभी-कभी बच्चों पर असहनीय आकांक्षा का बोझ बन जाती है। यह अपेक्षा अब इतनी सामान्य हो गई है कि उसकी उपस्थिति दिखती नहीं, लेकिन हर बच्चे की धडक़नों में गूंजती है।
आज अगर कोई बात सबसे अधिक जरूरी है, तो वह है यह समझना कि बच्चे केवल नंबर नहीं, अनुभव भी हैं। वे केवल प्रदर्शन की परियोजना नहीं, एक बनती हुई संवेदना हैं। उन्हें कोई एक दिशा देने से पहले समझना होगा-वे क्या सोचते हैं, क्या महसूस करते हैं। ठहराव और उलझन किसी भी यात्रा का अभिन्न अंग हैं-इन्हें विफलता की तरह नहीं, विकास की तरह देखना चाहिए। इन्हें कमजोरी की तरह नहीं, हिस्सेदारी की तरह देखा जाना चाहिए।
यह एक मौन आपातकाल है, जिसमें हर बच्चा ‘ठीक है’ कहता तो है, लेकिन भीतर कहीं न कहीं थका हुआ है। वह सिर्फ स्कूल में नहीं, घर में भी हर वक्त जांच की निगाहों में है। वक्त है चीजों को थोड़ा अलग देखने का-जहां स्कूल सिर्फ सिलेबस खत्म करने की जगह न हो, घर सिर्फ उम्मीदों से भरा एक कमरा न हो और समाज हर बार यह पूछने से पहले कि बच्चा कहां तक पहुंचा, कभी यह भी पूछे कि वह कैसा महसूस कर रहा है। क्योंकि सबसे आगे निकल जाने की होड़ में अगर कोई चीज सबसे पहले गिरती है, तो वह सहजता होती है और जो सबसे आखिर में चुपचाप पीछे छूट जाती है, वह होती है-बचपन।