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अरावली की गोद में वीरों का मठ : गुमनामी से पुनर्जागरण तक की अद्भुत यात्रा

कुंभलगढ़ की ऊंची पहाड़ियों और हरे-भरे वन प्रांतरों के बीच छिपा बैठा है ‘वीरों का मठ’। कहते हैं

Veero Ka math
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राजसमंद. कुंभलगढ़ की ऊंची पहाड़ियों और हरे-भरे वन प्रांतरों के बीच छिपा बैठा है ‘वीरों का मठ’। कहते हैं, सदियों पहले जब महाभारत का युद्ध धरती पर अपना रणभेरी बजा रहा था, तभी अरावली की इस गोद में परशुराम ने वीरों को शस्त्र और शास्त्र का पाठ पढ़ाया। बनास नदी का उद्गम यही पावन भूमि है, जिसके शीतल जल से न जाने कितने ऋषि-मुनि और योद्धा अपनी थकान मिटाते रहे।

उपेक्षा के अंधेरे से रोशनी तक

लेकिन वक्त की धूल सब कुछ ढक देती है। तीन-चार दशक पहले यहां विराजित सिद्ध संत के देवलोकगमन के बाद यह वीरों का मठ भी वीरानियों में डूबने लगा। ना कोई सारथी, ना कोई संरक्षक। जंगल में जैसे-जैसे झाड़-झंखाड़ बढ़ते गए, वैसे-वैसे इस स्थल की महिमा लोगों की स्मृति से ओझल होने लगी। तभी हरिद्वार से एक संत आए-महंत रविन्द्रपुरी। महानिर्वाणी पंचायती अखाड़ा कनखल हरिद्वार के सचिव एवं अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष। उन्होंने इस वीरों के मठ को फिर से उसकी गौरवगाथा लौटाने का बीड़ा उठाया। कहते हैं, साधु तो योग से चमत्कार करते हैं, पर इस संत ने परिश्रम से कर दिखाया। करीब 35 साल के अथक श्रम और तपस्या के बाद अब वीरों का मठ नए रूप में एक भव्य तीर्थ बन खड़ा है।

51 फुट ऊंचा शिखर : जैसे आकाश को छूने निकला हो

मठ के वर्तमान संत नयनपुरी जी बड़े गर्व से कहते हैं कि देखिए महराज! यह सिर्फ मंदिर नहीं, परंपरा की पुनर्स्थापना है।नवनिर्मित शिव मंदिर का शिखर 51 फुट ऊंचा खड़ा होकर जैसे अरावली की चोटियों को स्पर्धा दे रहा है। शिल्प भी ऐसा कि एक जगह खड़े होकर राजस्थान की स्थापत्य कला से लेकर दक्षिण भारत की नक्काशी तक सबकी झलक दिखाई दे।और अब एक अनोखा काम बाकी है। शिखर पर बारह ज्योतिर्लिंगों की स्थापना। सोचिए, एक ही आंगन में बारहों ज्योतिर्लिंगों के दर्शन! जितना दुर्लभ उतना अद्भुत।

परशुराम की धरती : इसलिए कहलाता है वीरों का मठ

कहते हैं, परशुराम इस क्षेत्र में घोर तपस्या कर वीरों को शस्त्रविद्या सिखाया करते थे। यही वजह है कि इसे ‘वीरों का मठ’ कहा जाता है। यहां वीरों के पगचिन्ह हैं, तपस्याओं के निशान हैं, और आस्थावानों के लिए शिव का वरदान भी।

सबसे खास परंपरा: भस्म आरती

महाशिवरात्रि की रात, जैसे ही अंधेरा अपने पूरे यौवन पर होता है, मठ का शिवलिंग भस्म से श्रृंगारित होता है। भस्म आरती होती है। एकदम वैसे ही जैसे उज्जैन के महाकालेश्वर में। राख में लिपटे शिव को देखने हजारों भक्त उमड़पड़ते हैं। मंत्रोच्चार से पूरा मठ गूंजता है और लगता है जैसे परशुराम का पराक्रम फिर से जीवित हो उठा हो।

जहां बहती है आस्था की बनास

और इस मठ की गोद से ही फूटती है बनास नदी। यही पवित्र जलधारा जो आगे जाकर कई गांवों, कस्बों और खेतों को जीवन देती है। जब नदी कलकल करती हुई बहती है, तो लगता है जैसे परशुराम की तपस्या का जल अभी भी धरती को पावन कर रहा हो। श्रद्धालुओं के लिए यह मठ सिर्फ पत्थर और शिखर नहीं- यह वो पवित्र स्थल है जहां परंपरा, पराक्रम और प्रकृति एक साथ धड़कते हैं।