
पटना: मेट्रो की शुरुआत पिछले दिनों हुई है। भूतनाथ स्टेशन पर आती मेट्रो। बिहार में पहली बार मेट्रो चलने पर इसमें यात्रा करने वाले लोग फोटो और सेल्फी लेते दिखते हैं।
शादाब अहमद
पटना। बिहार-वह धरती जिसने लोकतंत्र को जन्म दिया, जहां वैशाली ने जनता के अधिकारों का बिगुल बजाया और जहां बुद्ध, चाणक्य और जयप्रकाश नारायण जैसे विचारकों ने समाज को दिशा दी। लेकिन आज वही बिहार चुनावी मौसम में एक बार फिर सियासत के अखाड़े में बदल गया है। मतदाता जहां विचारधारा और मुद्दों को तलाश रहा है, वहीं सियासी दल जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण के साथ दल-बदल की राजनीति में उलझे हैं।
बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण हमेशा से निर्णायक रहे हैं, मगर इस बार तस्वीर और जटिल हो गई है। पटना की गलियों में लोगों की जुबां पर नारे कम और सवाल ज़्यादा सुनाई दे रहे हैं कि ‘कौन किसके साथ जाएगा?’ दरअसल, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जिन्हें कभी ‘सुशासन बाबू’ कहा जाता था, अब ‘यू-टर्न’ राजनीति के प्रतीक बन चुके हैं। महागठबंधन और एनडीए के बीच हुई लगातार अदला-बदली ने जनता को उलझन में डाल दिया है। छठ के त्योहार के माहौल में जनता से बातचीत में यह बात सामने आई कि बदलते गठबंधनों के शोर में शिक्षा, स्वास्थ्य, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और पलायन जैसे असल मुद्दे पीछे छूटते जा रहे हैं। वहीं, प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी और असदुद्दीन ओवैसी की एआइएमआइएम की मौजूदगी किसी भी बड़े गठबंधन के लिए मुश्किलें बढ़ा सकती है।
बिहार का यह चुनाव मुद्दों से ज़्यादा चेहरों की लड़ाई बन गया है। दोनों ही प्रमुख गठबंधनों में चेहरों की भीड़ तो है, लेकिन जनता चेहरों से ज्यादा भरोसे की तलाश में है। एनडीए के लिए नीतीश कुमार, सम्राट चौधरी, चिराग पासवान और जीतन राम मांझी जैसे नेता मैदान में हैं, जो खुद को मुख्यमंत्री पद का चेहरा मानते हैं। वहीं महागठबंधन तेजस्वी यादव, अखिलेश प्रसाद सिंह, कन्हैया कुमार, शकील अहमद और मुकेश सहनी जैसे चेहरों पर भरोसा जता रहा है।
कई राज्यों के चुनावों में महिलाओं और युवाओं की भूमिका अहम रही है। बिहार में भी सभी दल इनको अहमियत दे रहे हैं।
पटना के डाकबंगला चौराहे पर चाय की दुकान पर बैठे डॉ. रामकुमार सिंह कहते हैं, ‘यह वही बिहार है जिसने दुनिया को लोकतंत्र दिया। यहां जनता नेता को ऊपर भी उठाती है और नीचे भी गिरा देती है। यह धरती याद दिलाती है कि लोकतंत्र में बदलाव का स्वाद लिट्टी-चोखे जितना देसी और चाइनीज नूडल्स जितना तात्कालिक दोनों हो सकता है। फर्क बस इतना है कि बिहार की राजनीति में मसाला कभी खत्म नहीं होता।’ पटना यूनिवर्सिटी के छात्र अमन राज का कहना है कि हर चुनाव में कोई न कोई पार्टी बदल देता है। नौकरी, पढ़ाई और पलायन जैसे मुद्दे हर बार पीछे छूट जाते हैं। दरियापुर के दुकानदार रामसेवक पासवान लिट्टी सेंकते हुए कहते हैं कि पहले लोग जात देखकर वोट देते थे, अब काम भी देख रहे हैं। लेकिन नेता काम कम, गठबंधन ज़्यादा बदलते हैं।
1. भाजपा: ऑपरेशन सिंदूर, घुसपैठिया, मुस्लिम डिप्टी सीएम, पाकिस्तान, राजद के ‘जंगलराज’ की याद दिलाना।
2. जेडीयू: 20 साल का विकास, अपराध नियंत्रण, महिलाओं का उत्थान, परिवारवाद से दूरी।
3. एलजेपी (रामविलास): पलायन रोकना, राजद के कथित गुंडाराज पर निशाना।
1. राजद: नीतीश सरकार के घोटाले, पेपर लीक, हर परिवार को एक नौकरी, वक्फ कानून पर पुनर्विचार।
2. कांग्रेस: वोट चोरी का आरोप, 25 लाख का हेल्थ बीमा, 200 यूनिट मुफ़्त बिजली, महिलाओं को ?2500 प्रतिमाह भत्ता।
बिहार के नतीजे केवल राज्य की सत्ता नहीं, बल्कि 2029 की लोकसभा रणनीति की भी दिशा तय करेंगे। यदि एनडीए सत्ता बरकरार रखता है तो केंद्र की स्थिति और मज़बूत होगी। वहीं महागठबंधन की जीत इंडिया ब्लॉक को नई ऊर्जा दे सकती है।
Updated on:
29 Oct 2025 09:57 am
Published on:
29 Oct 2025 09:52 am
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